________________ 738 ] [ स्थानांगसूत्र 1. बालदशा-इसमें सुख-दुःख या भले-बुरे का विशेष बोध नहीं होता। 2. क्रीडादशा-इसमें खेल-कूद की प्रवृत्ति प्रबल रहती है। 3. मन्दादशा-इसमें भोग-प्रवृत्ति की अधिकता से बुद्धि के कार्यों की मन्दता रहती है। 4. बलादशा-इसमें मनुष्य अपने बल का प्रदर्शन करता है। 5. प्रज्ञादशा--इसमें मनुष्य की बुद्धि धन कमाने, कुटुम्ब पालने आदि में लगी रहती है। 6. हायनीदशा-इसमें शक्ति क्षीण होने लगती है। 7. प्रपंचादशा--इसमें मुख से लार-थूक आदि गिरने लगते हैं। 8. प्राग्भारदशा-इसमें शरीर झुरियों से व्याप्त हो जाता है। 6. उन्मुखीदशा—इसमें मनुष्य बुढापा से आक्रान्त हो मौत के सन्मुख हो जाता है। 10. शायिनीदशा-इसमें मनुष्य दुर्बल, दीनस्वर होकर शय्या पर पड़ा रहता है। तृणवनस्पति-सूत्र 155 - दसविधा तणवणस्सतिकाइया पण्णत्ता, त जहा-मूले, कंदे, (खंधे, तया, साले, पवाले, पत्ते), पुप्फे, फले, बोये / तृणवनस्पतिकायिक जीव दश प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. मूल, 2. कन्द, 3. स्कन्ध, 4. त्वक, 5. शाखा, 6. प्रवाल, 7. पत्र, 8. पुष्प 6. फल, 10. बीज (155) / श्रेणि-सूत्र १५६-सव्वाप्रोवि णं विज्जाहरसेढीयो दस-दस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। दीर्घ वैताढय पर्वत पर अवस्थित सभी विद्याधर-श्रेणियां दश-दश योजन विस्तृत कही गई हैं (156) / १५७-सव्वानोवि णं प्राभिप्रोगसेढीयो दस-दस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। दीर्घ वैताढ्य पर्वत पर अवस्थित सभी आभियोगिक-श्रेणियां दश-दश योजन विस्तुत कही गई हैं (157) / विवचन---भरत और ऐरवत क्षेत्र के ठीक मध्यभाग में पूर्व समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र तक लम्बा और मूल में पचास योजन चौड़ा एक-एक वैताढय पर्वत है। इसकी ऊंचाई पच्चीस योजन है। भूमितल से दश योजन की ऊंचाई पर उसके उत्तरी और दक्षिणी भाग पर विद्याधरों की श्रेणियां मानी गई हैं। उनमें विद्याधर रहते हैं, जो कि विद्याओं के बल से आकाश में गमनादि करने में समर्थ होते हैं। वे श्रेणियां दोनों प्रोर दश-दश योजन चौडी हैं। इन विद्याधर-श्रेणियों दश योजन की ऊंचाई पर आभियोगिक श्रेणियां मानी गई हैं, जिनमें अभियोग जाति के व्यन्तर देव रहते हैं। ये श्रेणियां भी दोनों ओर दश-दश योजन चौड़ी कही गई हैं। अवेयक-सूत्र १५८-गेविज्जगविमाणा णं दस जोयणसयाई उड्ड उच्चत्तेणं पण्णता। ग्रेवेयक विमानों के ऊपर की ऊंचाई दश सौ (1000) योजन कही गई है (158) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org