________________ 718 ] [स्थानाङ्गसूत्र 6. आत्मोपनीत-विशेष--उदाहरण दोष का एक प्रकार / 10. विशेष-वस्तु का भेदात्मक धर्म (65) / शुद्धवाग्-अनुयोग-सूत्र ६६-दसविधे सुद्धवायाणुप्रोगे पण्णत्ते, तं जहा-चंकारे, मंकारे, पिंकारे, सेयंकारे, सायंकारे, एगत्ते, पुधत्ते, संजहे, संकामिते, भिण्णे। वाक्य-निरपेक्ष शुद्ध पद का अनुयोग दश प्रकार का कहा गया है / जैसे१. चकार-अनुयोग–'च' शब्द के अनेक अर्थों का विस्तार / जैसे- कहीं 'च' शब्द समुच्चय, कहीं अन्वादेश, कहीं अवधारण आदि अर्थ का बोधक होता है। 2. मकार-अनुयोग-'म' शब्द के अनेक अर्थो का विस्तार / जैसे—'जेणामेव, तेणामेव' आदि पदों में उसका प्रयोग प्रागमिक है, लाक्षणिक या प्राकृतव्याकरण से सिद्ध नहीं, आदि। 3. पिकार-अनुयोग–'अपि' शब्द के सम्भावना, निवृत्ति, अपेक्षा, समुच्चय, अादि अनेक अर्थों का विचार / 4. सेयंकार-अनुयोग-से' शब्द के अनेक अर्थों का विचार / जैसे—कहीं 'से' शब्द 'अथ' का वाचक होता है, कहीं 'वह' का वाचक होता है, आदि / 5. सायंकार अनुयोग-'सायं' आदि निपात शब्दों के अर्थ का विचार / जैसे-वह कहीं सत्य अर्थ का और कहीं प्रश्न का बोधक होता है। 6. एकत्व-अनुयोग--एकवचन के अर्थ का विचार / जैसे--'नाणं च दंसणं चेव, चरित्तय तवो तहा / एस मग्गुत्ति पन्नत्तो' यहां पर ज्ञान, दर्शनादि समुदितरूप को ही मोक्षमार्ग कहा है। यहां बहुतों के लिए भी 'मग्गों' यह एकवचन का प्रयोग किया गया है। 7. पृथक्त्व-अनुयोग-बहुवचन के अर्थ का विचार / जैसे–'धम्मत्थिकायप्पदेसा' इस पद में बहुवचन का प्रयोग उसके असंख्यात प्रदेश बतलाने के लिए है / 8. संयूथ-अनुयोग-समासान्त पद के अर्थ का विचार / जैसे—'सम्मदंसणसुद्ध' इस समासान्त पद का विग्रह अनेक प्रकार से किया जा सकता है१. 'सम्यग्दर्शन के द्वारा शुद्ध'--तृतीया विरक्ति के रूप में, 2. 'सम्यग्दर्शन के लिए शुद्ध'--चतुर्थी विभक्ति के रूप में, 3. 'सम्यग्दर्शन से शुद्ध'---पंचमी विभक्ति के रूप में / 6. संक्रा मित-अनुयोग-विभक्ति और वचन के संक्रमण का विचार / जैसे—'साहणं वंदणेणं नासति पाव असंकिया भावा' अर्थात् साधुओं को बन्दना करने से पाप नष्ट होता है और साधु के पास रहने से भाव अशंकित होते हैं। यहां वन्दना के प्रसंग में 'साहूणं' षष्ठी भक्ति है। उसका भाव अशंकित होने के सम्बन्ध में पंचमी विभक्ति के रूप से संक्रमित किया गया। यह विभक्ति-संक्रमण है / तथा 'अच्छंदा जे न भुजंति, न से चाइत्ति बुच्चई' यहां से चाई' यह बहुवचन के स्थान में एकवचन का संक्रामित प्रयोग है / 10. भिन्न-अनुयोग-क्रमभेद और कालभेद आदि का विचार / जैसे-'तिविहं तिविहेण' यह संग्रहवाक्य है। इसमें १-मणेणं वायाए काएणं, २-न करेमि, न कारवेमि, करतंपि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org