________________ 658 ] [ स्थानाङ्गसूत्र कुलकोटी-सूत्र १२५--तेइंदियाणं अदु जाति-कुलकोडो-जोणीपमुह-सतसहस्सा पण्णत्ता / श्रीन्द्रिय जीवों की जाति-कुलकोटियोनियां पाठ लाख कही गई हैं (125) / विवेचन-जीवों की उत्पत्ति के स्थान या आधार को योनि कहते हैं। उस योनिस्थान में उत्पन्न होने वाली अनेक प्रकार की जातियों को कुलकोटि कहते हैं। गोबर रूप एक ही योनि में कृमि, कीट, और विच्छू आदि अनेक जाति के जीव उत्पन्न होते हैं, उन्हें कुल कहा जाता है। जैसेकृमिकुल, कीटकुल, वृश्चिककुल आदि / त्रीन्द्रिय जीवों को योनियां दो लाख हैं और उनकी कुलकोटियां आठ लाख होती हैं। पापकर्म-सूत्र १२६-जीवा णं अठाणणिन्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तं जहा–पढमसमयणेरइयणिवत्तिते, (अपढमसमयणेरइयणिवत्तिते, पढमसमयतिरिणिवत्तिते, अपढमसमयतिरियणिवत्तिते, पढमसमयमणुयणिवत्तिते, अपढमसमयमणुयणिव्यत्तिते, पढमसमयदेवणिन्वत्तिते), अपढमसमयदेवणिवत्तिते / एवं-चिण-उवचिण-(बंध-उदीर-वेद तह) णिज्जरा चेव / जीवों ने आठ स्थानों से निर्वतित पुद्गलों का पापकर्मरूप से अतीत काल में संचय किया है, वर्तमान में कर रहे हैं और आगे करेंगे। जैसे-- 1. प्रथम समय नैरयिक निर्वतित पुद्गलों का। 2. अप्रथम समय नैरयिका निर्वतित पुद्गलों का। 3. प्रथम समय तिर्यंचनिर्वतित पुद्गलों का। 4. अप्रथम समय तिर्यचनिर्वतित पुद्गलों का / 5. प्रथम समय मनुष्यनिर्वतित पुद्गलों का। 6. अप्रथम समय मनुष्यनिर्वतित पुद्गलों का। 7. प्रथम समय देवनिर्वतित पुद्गलों का।। 8. अप्रथम समय देवनिर्वर्तित पुद्गलों का (126) / इसी प्रकार सभी जीवों ने उनका उपचय, बन्धन, उदोरण, वेदन और निर्जरण अतीत काल में किया है, वर्तमान में करते हैं और प्रागे करेंगे। पुद्गल-सूत्र 127 --अट्ठपएसिया खंधा प्रणता पण्णता। आठ प्रदेशी पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं (127) / १२८-प्रटुपएसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता जाव अट्टगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णता। आकाश के आठ प्रदेशों में अवगाढ़ पुद्गल अनन्त कहे गये हैं। पाठ गुणवाले पुद्गल अनन्त कहे गये हैं। इसी प्रकार शेष वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के माठ गुणवाले पुद्गल अनन्त कहे गये हैं(१२८)। / पाठवां स्थान समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org