________________ 626 ] [ स्थानाङ्गसूत्र जीवों ने आठ कर्मप्रकृतियों का अतीत काल में संचय किया है, वर्तमान में कर रहे हैं और भविष्य में करेंगे / जैसे 1. ज्ञानावरणीय, 2. दर्शनावरणीय, 3. वेदनीय, 4. मोहनीय, 5. आयु, 6. नाम, 7. गोत्र, 8. अन्तराय (5) / ६.--णरइया णं अट्ट कम्मपगडीयो चिणिसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा एवं चेव / नारक जीवों ने उक्त पाठ कर्मप्रकृतियों का संचय किया है, कर रहे हैं और भविष्य में करेंगे (6) / ७–एवं णिरंतरं जाव वेमाणियाणं / इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डक वाले जीवों ने आठ कर्मप्रकृतियों का संचय किया है, कर रहे हैं और करेंगे (7) / ८-जीवा गं अटू कम्मपगडीप्रो उवचिणिसु वा उचिणंति वा उचिणिस्संति वा एवं चेव / एवं-चिण-उवचिण-बंध-उदीर-वेय तह णिज्जरा चेव / एते छ चउवीसा दंडगा भाणियव्वा / जीवों ने पाठ कर्मप्रकृतियों का संचय, उपचय, बन्ध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, कर रहे हैं और करेंगे (8) / इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिकों तक सभी दण्डकों के जीवों ने आठ कर्म-प्रकृतियों का संचय, उपचय, बन्ध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, कर रहे हैं और करेंगे / __ इस प्रकार संचय आदि छह पदों की अपेक्षा चौवीस दण्डक जानना चाहिए। आलोचना-सूत्र E--प्रहि ठाणेहि मायो मायं कट्ट गो पालोएज्जा, णो पडिएकमेज्जा (णो णिदेज्जा णो गरिहेज्जा, जो विउट्टज्जा, णो विसोहेज्जा, गो प्रकरणयाए अन्भुट्ठज्जा, णो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म) पडिवज्जेज्जा, तं जहा-करिसु वाहं, करेमि वाहं, करिस्सामि वाहं, अकित्ती वा मे सिया, प्रवाणे वा मे सिया, प्रविणए वा मे सिया, कित्ती वा मे परिहाइस्सइ, जसे वा मे परिहाइस्सइ / आठ कारणों से मायावी पुरुष माया करके न उसकी आलोचना करता है, न प्रतिक्रमण करता है, न निन्दा करता है, न गर्दा करता है, न व्यावृत्ति करता है. न विशुद्धि करता है, नं पुनः वैसा नहीं करूंगा' ऐसा कहने को उद्यत होता है, न यथायोग्य प्रायश्चित्त, और तपःकर्म को स्वीकार करता है। वे आठ कारण इस प्रकार हैं 1. मैंने (स्वयं) प्रकरणीय कार्य किया है, 2. मैं अकरणीय कार्य कर रहा हूँ, 3. मैं अकरणीय कार्य करूगा। 4. मेरी अकीति होगी, 5. मेरा अवर्णवाद होगा 6. मेरा अविनय होगा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org