________________ [ 625 अष्टम स्थान ] ___ जो साधक जिनकल्प-प्रतिमा स्वीकार करता है, उसके लिए उक्त पाँचों तुलानों में उत्तीर्ण होना आवश्यक है। 6. अल्पाधिकरण-एकलविहार प्रतिमा स्वीकार करने वाले को उपशान्त कलह की उदीरणा तथा नये कलहों का उद्भावक नहीं होना चाहिए। 7. धृतिमान्---उसमें रति-अरति समभावी एवं अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों को सहन करने में धैर्यवान होना चाहिए। 8. वीर्यसम्पन्न स्वीकृत साधना में निरन्तर उत्साह बढ़ाते रहना चाहिए। उक्त पाठ गुणों से सम्पन्न अनगार ही एकल-विहार-प्रतिमा को स्वीकार करने के योग्य माना गया है। योनि-संग्रह-सूत्र 2- अविधे जोणिसंगहे पण्णत्ते, तं जहा-अंडगा, पोतगा, (जराउजा, रसजा, संसेयगा, समुच्छिमा), उभिगा, उववातिया। योनि-संग्रह पाठ प्रकार का कहा गया है। जैसे१. अण्डज, 2. पोतज, 3. जरायुज 4. रसज, 5. संस्वेदज, 6. सम्मूच्छिम 7. उद्भिज्ज, 8. औपपातिक (2) / गति-आगति-सूत्र ३–अंडगा अगतिया अट्टागतिया पण्णत्ता, तं जहा--अंडए अंडएसु उववज्जमाणे अंडरहितो वा, पोतहितो वा, (जराउजेहितो वा, रसहितो बा, संसेयरोहितो वा, समुच्छिमेहिंतो वा, उभिएहिंतो वा), उववातिएहितो वा उबवज्जेज्जा / से चेव णं से अंडए अंडगत्तं विप्पजहमाणे अंडगत्ताए वा, पोतगत्ताए वा, (जराउजताए वा, रसजताए वा, संसेयगत्ताए वा, समुच्छिमत्ताए वा, उब्भियत्ताए वा), उववातियत्ताए वा गच्छेज्जा / अण्डज जीव पाठ गतिक और आठ प्रागतिक कहे गये हैं / जैसे अण्डज जीव अण्डजों में उत्पन्न होता हुअा अण्डजों से, या पोतजों से, या जरायुजों से, या रसजों से, या संस्वेदजों से, या सम्मूर्छिमों से, या उद्भिज्जों से, या औपपातिकों से आकर उत्पन्न होता है / वही अण्डज जीव वर्तमान पर्याय अण्डज को छोडता हा अण्डजरूप से, या पोतजरूप से, या जरायुज रूप से, या रसज रूप से, या संस्वंदज रूप से, या सम्मूच्छिम रूप से, या उद्भिज्जरूप से, या औपपातिक रूप से उत्पन्न होता है / (3) 4 --एवं पोतगावि जराउजावि सेसाणं गतिरागती णत्थि / इसी प्रकार पोतज भी और जरायुज भी पाठ गतिक और पाठ प्रागतिक जानना चाहिए / शेष रसज प्रादि जीवों की गति और आगति आठ प्रकार की नहीं होती है (4) / कर्म-बन्ध-सूत्र ५-जीवा णं अटु कम्मपगडीओ चिणिसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तं जहा–णाणाधरणिज्जं, दरिसणावरणिज्जं, वेयणिज्जं, मोहणिज्जं, पाउयं, णामं गोत्तं, अंतराइयं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org