SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 663
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम स्थान] [ 565 6. वर्धकीरत्न—यह सभी बढ़ई, मिस्त्री या कारीगरों का प्रधान, गृहनिर्माण में कुशल, नदियों को पार करने के लिए पुल-निर्माणादि करने वाला श्रेष्ठ अभियन्ता (इंजिनीयर) होता है। 7. स्त्रीरत्न-यह चक्रवर्ती के विशाल अन्तःपुर में सर्वश्रेष्ठ सौन्दर्य वाली चक्रवर्ती की सर्वाधिक प्राणवल्लभा पट्टरानी होती है / 8. चक्ररत्न--यह सभी आयुधों में श्रेष्ठ और अदम्य शत्रुओं को भी दमन करने वाला प्रायुधरत्न है। 1. छत्ररत्न-यह सामान्य या साधारण काल में यथोचित प्रमाणवाला चक्रवर्ती के ऊपर छाया करने वाला होता है / किन्तु अकस्मात् वर्षाकाल होने पर युद्धार्थ गमन करने वाले बारह योजन लम्बे चौड़े सारे स्कन्धावार के ऊपर फैलकर धूप और हवा-पानी से सब की रक्षा करता है। 10. चर्मरत्न-प्रवास काल में बारह योजन लम्बे-चौड़े छत्र के नीचे प्रातःकाल बोये गये शालि-धान्य के बीजों को मध्याह्न में उपभोग योग्य बना देने में यह समर्थ होता है। 11. मणिरत्न-यह तीन कोण और छह अंश वाला मणि प्रवास या युद्ध काल में रात्रि के समय चक्रवर्ती के सारे कटक में प्रकाश करता है / तथा वैताढयगिरि को तमिस्र और खंडप्रपात गुफाओं से निकलते समय हाथी के शिर के दाहिनी ओर बांध देने पर सारी गुफाओं में प्रकाश करता है। 11. काकिणीरत्न-यह आठ सौणिक-प्रमाण, चारों ओर से सम होता है / तथा सर्व प्रकार के विषों का प्रभाव दूर करता है। 13. खङ्गरत्न-यह अप्रतिहत शक्ति और अमोघ प्रहार वाला होता है। 14. दण्डरत्न-यह वज्रमय दण्ड शत्रु-सैन्य का मर्दन करने वाला, विषम भूमि को सम करने वाला और सर्वत्र शान्ति स्थापित करने वाला रत्न है। तिलोयपण्णत्ति में चेतन रत्नों के नाम इस प्रकार से उपलब्ध हैं१. अश्वरत्न-पवनंजय / 2. गजरत्न-विजयगिरि। 3. गृहपतिरत्न–भद्रमुख / 4. स्थपति (वर्धकि) रत्न-कामवृष्टि / 5. सेनापतिरत्न-अयोध्य / 6. स्त्रीरत्न-सुभद्रा / 7. पुरोहित रत्न-बुद्धिरत्न / दुःषमा-लक्षण-सूत्र ६६–सहि ठाणेहि प्रोगाढं दुस्सम जाणज्जा, तं जहा-प्रकाले वरिसइ, काले ण वरिसइ, असाधू पुज्जति, साधू ण पुज्जति, गुरूहि जणो मिच्छं पडिवण्णो, मणोदुहता, वइदुहता। सात लक्षणों से दु:षमा काल का पाना या प्रकर्ष को प्राप्त होना जाना जाता है। जैसे१. अकाल में वर्षा होने से। 2. समय पर वर्षा न होने से / 3. असाधुओं की पूजा होने से / 4. साधुओं की पूजा न होने से / 5. गुरुजनों के प्रति लोगों का असद् व्यवहार होने से / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy