________________ 538] [ स्थानाङ्गसूत्र असात (दुःख) छह प्रकार का कहा गया है / जैसे--- 1. श्रोत्रेन्द्रिय-असात, 2. चक्षुरिन्द्रिय-असात, 3. नाणेन्द्रिय-असात, 4. रसनेन्द्रिय-असात, 5. स्पर्शनेन्द्रिय-असात, 6. नोइन्द्रिय-असात / (18) प्रायश्चित्त-सूत्र १६-छबिहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा-पालोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, विवेगारिहे, विउस्सग्गारिहे, तबारिहे / प्रायश्चित्त छह प्रकार का कहा गया है / जैसे१. आलोचना-योग्य, 2. प्रतिक्रमण-योग्य, 3. तदुभय-योग्य, 4. विवेक-योग्य, 5. व्युत्सर्ग-योग्य, 6. तप-योग्य / (16) विवेचन-यद्यपि तत्त्वार्थ सूत्र में प्रायश्चित के नौ तथा प्रायश्चित सूत्र आदि में दश भेद बताये गये हैं, किन्तु यहाँ छह का अधिकार होने से छह ही भेद कहे गये हैं। किसी साधारण दोष की शुद्धि गुरु के आगे निवेदन करने से आलोचना मात्र से हो जाती है / इससे भी बड़ा दोष लगता है, तो प्रतिक्रमण से- मेरा दोष मिथ्या हो-(मिच्छा मि दुक्कडं) ऐसा बोलने से—उसकी शुद्धि हो जाती है / कोई दोष और भी बड़ा हो तो उसकी शुद्धि तदुभय से अर्थात अालोचना और प्रतिक्रमण दोनों से होती है / कोई और भी बड़ा दोष होता है, तो उसकी शुद्धि विवेक नामक प्रायश्चित्त से होती है। इस प्रायश्चित्त में दोषी व्यक्ति को अपने भक्त-पान और उपकरणादि के पथक विभाजन का दण्ड दिया जाता है / यदि इससे भी गुरुतर दोष होता है, तो नियत समय तक कायोत्सर्ग करनेरूप व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि होती है। और यदि इससे भी गुरुतर अपराध होता है तो उसकी शुद्धि के लिए चतुर्थ भक्त-षष्ठभक्त प्रादि तप का प्रायश्चित्त दिया जाता है। सारांश यह है कि जैसा दोष होता है, उसके अनुरूप ही प्रायश्चित्त देने का विधान है। यह बात छहों पदों के साथ प्रयुक्त 'अहं' (योग्य) पद से सूचित की गई है। मनुष्य-सूत्र २०-छविहा मणुस्सा पण्णत्ता, त जहाजंबूदीवगा, धायइसंडदीवपुरथिमद्धगा, धायइसंडदीवपच्चस्थिमद्धगा, पुक्खरवरदीवड्डपुरस्थिमद्धगा, पुक्खरवरदीवड्ढपच्चरिथमद्धगा, अंतरदीवगा। __अहवा-छबिहा मणुस्सा पण्णता, त जहा-समुच्छिममणुस्सा-कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, अंतरदीवगा; गब्भवक्कंतिग्रमणुस्सा-कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, अंतरदीवगा। मनुष्य छह प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. जम्बूद्वीप में उत्पन्न, 2. धातकीषण्डद्वीप के पूर्वार्ध में उत्पन्न, 3. धातकीषण्ड के पश्चिमा में उत्पन्न, 4. पुष्करवरद्वीपा के पूर्वार्ध में उत्पन्न, 5. पुष्करवरद्वीपार्ध के पश्चिमार्ध में उत्पन्न, 6. अन्तर्वीपों में उत्पन्न मनुष्य / अथवा मनुष्य छह प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. कर्मभूमि में उत्पन्न होने वाले सम्मूच्छिम मनुष्य, 2. अकर्मभूमि में उत्पन्न होने वाले सम्मूच्छिम मनुष्य, 3. अन्तर्वीप में उत्पन्न होने वाले सम्मूछिम मनुष्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org