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________________ षष्ठ स्थान गण-धारण-सूत्र १-छहि ठाणेहि संपण्णे अणगारे अरिहति गणं धारित्तए, तं जहा-सड्डी पुरिसजाते, सच्चे पुरिसजाते, मेहावी पुरिसजाते, बहुस्सुते पुरिसजाते, सत्तिम, अप्पाधिकरणे। छह स्थानों से सम्पन्न अनगार गण धारण करने के योग्य होता है / जैसे१. श्रद्धावान् पुरुष, 2. सत्यवादी पुरुष, 3. मेधावी पुरुष, 4. बहुश्रु त पुरुष, 5. शक्तिमान् पुरुष, 6. अल्पाधिकरण पुरुष / विवेचन-गण या साधु-संघ को धारण करने वाले व्यक्ति को इन छह विशेषताओं से संयुक्त होना आवश्यक है, अन्यथा वह गण या संघ का सुचारु संचालन नहीं कर सकता। उसे सर्वप्रथम श्रद्धावान् होना चाहिए। जिसे स्वयं ही जिन-प्रणीत मार्ग पर श्रद्धा नहीं होगी वह दूसरों को उसकी दृढ प्रतीति कैसे करायगा ? दूसरा गुण सत्यवादी होना है / सत्यवादी पुरुष ही दूसरों को सत्यार्थ की प्रतीति करा सकता है और की हुई प्रतिज्ञा के निर्वाह करने में समर्थ हो सकता है / तीसरा गुण मेधावी होना है। तीक्ष्ण या प्रखर बुद्धिशाली पुरुष स्वयं भी ध त-ग्रहण करने में समर्थ होता है और दूसरों को भी श्र त-ग्रहण कराने में समर्थ हो सकता है। ___ चौथा गुण बहुश्रु त-शाली होना है। जो गणनायक बहुश्रुत-सम्पन्न नहीं होगा, वह अपने शिष्यों को कैसे श्रुत-सम्पन्न कर सकेगा! पांचवाँ गुण शक्तिशाली होना है। समर्थ पुरुष को स्वस्थ एवं दृढ संहनन वाला होना आवश्यक है। साथ ही मंत्र-तंत्रादि की शक्ति से भी सम्पन्न होना चाहिए / छठा गुण अल्पाधिकरण होना है / अधिकरण का अर्थ है-कलह या विग्रह और 'अल्प' शब्द यहाँ अभाव का वाचक हैं / जो पुरुष स्व-पक्ष या पर-पक्ष के साथ कलह करता है, उसके पास नबीन शिष्य दीक्षा-शिक्षा लेने से डरते हैं इसलिए गणनायक को कलहरहित होना चाहिए। अतः उक्त छह गुणों से सम्पन्न साधु ही गणको धारण करने के योग्य कहा गया है / (1) निर्ग्रन्थी-अवलंबन-सूत्र २.-हिं ठाणेहिं णिग्गंथे णिग्गथि गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा गाइक्कमइ, तं जहाखितचित्तं, दित्तचित्तं जक्खाइट्ट, उम्मायपत्तं, उवसगपत्तं, साहिकरणं / छह कारणों से निर्ग्रन्थ, निर्ग्रन्थी को ग्रहण और अवलम्बन देता हुआ भगवान् को प्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है / जैसे-- 1. निर्ग्रन्थी के विक्षिप्तचित्त हो जाने पर, 2. दृप्तचित्त हो जाने पर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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