________________ षष्ठ स्थान सार : संक्षेप प्रस्तुत स्थान में छह-छह संख्या से निबद्ध अनेक विषय संकलित हैं। यद्यपि यह छठा स्थान अन्य स्थानों की अपेक्षा छोटा है और इसमें उद्देश-विभाग भी नहीं है, पर यह अनेक महत्त्वपूर्ण चर्चाओं से परिपूर्ण है जिन्हें साधु और साध्वियों को जानना अत्यावश्यक है। सर्वप्रथम यह बताया गया है कि गण के धारक गणी, या प्राचार्य को कैसा होना चाहिए ? यदि वह श्रद्धावान्, सत्यवादी, मेधावी, बहुश्रु त, शक्तिमान् और अधिकरणविहीन है, तब वह गणधारक के योग्य है। इसका दूसरा पहलू यह है कि जो उक्त गुणों से सम्पन्न नहीं है, वह गण-धारण के योग्य नहीं है। साधुओं के कर्तव्यों को बताते हुए प्रमाद-युक्त और प्रमाद-मुक्त प्रतिलेखना से जिन छह-छह भेदों का वर्णन किया गया है, वे सर्व सभी साधुवर्ग के लिए ज्ञातव्य एवं आचरणीय हैं, गोचरी के छह भेद, प्रतिक्रमण के छह भेद, संयम-असंयम के छह भेद और प्रायश्चित्त का कल्प प्रस्तार तो साधु के लिए बड़ा ही उद्-बोधक है / इसी प्रकार साधु-याचार के घातक छह पलिमंथु, छह-प्रकार के प्रवचन और उन्माद के छह स्थानों का वर्णन साधु-साध्वी को उन से बचने की प्रेरणा देता है / अन्तकर्म-पद भी ज्ञातव्य है। निर्ग्रन्थ साधु किस-किस अवस्था में निर्ग्रन्थी को हस्तावलम्बन और सहारा दे सकता है, कौन-कौन से स्थान साधु के लिए हित-कारक और अहित-कारक हैं, कब किन कारणों से साधु को आहार लेना चाहिए और किन कारणों से आहार का त्याग करना चाहिए, इसका भी बहुत सुन्दर विवेचन किया गया है / सैद्धान्तिक तत्त्वों के निरूपण में गति-आगति-पद, इन्द्रियार्थ-पद, संवर-असंवर पद, कालचक्रपद, संहनन और संस्थान-पद, दिशा-पद, लेश्या-पद, मति-पद, आयुर्बन्ध-पद आदि पठनीय एवं महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से मनुष्य-पद, प्रार्य-पद, इतिहास-पद दर्शनीय हैं / ज्योतिष की दृष्टि से कालचक्र-पद, दिशा-पद, नक्षत्र-पद, ऋतु-पद, अवमरात्र और अतिरात्रपद विशेष ज्ञानवर्धक हैं। भौगोलिक दृष्टि से लोकस्थिति-पद, महानरक-पद, विमान-प्रस्तट-पद, महाद्रह-पद, नदी-पद आदि अवलोकनीय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org