________________ पंचम स्थान-तृतीय उद्देश ] [526 पापकर्म-सूत्र २३८-जीवा णं पंचट्ठाणणिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिसु वा चिणंति वा चिणिस्संति, वा, तं जहा-एगिदियणिव्यत्तिए, (बेइंदिणिन्धत्तिए, तेइंदियणिवत्तिए, चरिदियणिबत्तिए), चिदियणिवत्तिए / एवं--चिण-उवचिण-बंध-उदीर-वेद तह णिज्जरा चेव / जीवों ने पाँच स्थानों से नितित पुद्गलों का पापकर्म के रूप से संचय भूतकाल में किया है, वर्तमान में कर रहे हैं और भविष्य में करेंगे / जैसे-- 1. एकेन्द्रिय निर्वतित पुद्गलों का, 2. द्वीन्द्रियनिर्वतित पुद्गलों का, 3. श्रीन्द्रिय निर्वतित पुद्गलों का, 4. चतुरिन्द्रियनिर्वतित पुद्गलों का, 5. पंचेन्द्रिय निर्वतित पुद्गलों का (237) / इसी प्रकार पाँच स्थानों से निर्वतित पुद्गलों का पापकर्म रूप से उपचय, बन्ध, उदीरण, वेदन और निर्जरण भूतकाल में किया है, वर्तमान में कर रहे हैं और भविष्य में करेंगे / पुद्गल-सूत्र २३६-पंचपएसिया खंधा प्रणंता पण्णता / पाँच प्रदेश वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त कहे गये हैं (238) / २४०-पंचपएसोगाढा पोग्गला अणता यण्णत्ता जाव पंचगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। (आकाश के) पाँच प्रदेशों में अवगाढ पुद्गलस्कन्ध अनन्त कहे गये हैं। पाँच समय को स्थिति वाले पुद्गल-स्कन्ध अनन्त कहे गये हैं। पांच गुणवाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त कहे गये हैं। इसी प्रकार शेष वर्ण, तथा सभी रस, गन्ध और स्पर्श वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त कहे गये हैं। / / तृतीय उद्देश समाप्त / / / / पंचम स्थान समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org