SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 588
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 520 ] [ स्थानाङ्गसूत्र योनिस्थिति-सूत्र २०६–अह भंते! कल-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-णिप्फाव-कुलस्थ-प्रालिसंदग-सतीण-पलिमंथगाणं-एतेसि णं धण्णाणं कुट्टाउत्ताणं (पल्लाउत्ताणं मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणं प्रोलित्ताणं लित्ताणं लंछियाणं मुद्दियाणं पिहिताणं) केवइयं कालं जोणी संचिति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं पंच संवच्छराई। तेण परं जोणी पमिलायति, तेण परं जोणी पविद्धसति, तेण परं जोणी विद्ध सति, तेण परं बीए अबीए भवति), तेण परं जोणीवोच्छेदे पण्णते। हे भगवन् ! मटर, मसूर, तिल, मूग, उड़द, निष्पाव (सेम) कुलथी, चवला, तूवर, और काला चना-इन धान्यों को कोठे में गुप्त (बन्द), पल्य में गुप्त, मचान में गुप्त और माल्य में गुप्त करके उनके द्वारों को ढंक देने पर, गोबर से लीप देने पर, चारों ओर से लीप देने पर, रेखाओं से लांछित कर देने पर, मिट्टी से मुद्रित कर देने पर और भलीभाँति से सुरक्षित रखने पर उनकी योनि (उत्पादक-शक्ति) कितने काल तक बनी रहती है ? हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक और उत्कृष्ट पाँच वर्ष तक उनकी उत्पादक शक्ति बनी रहती है। उसके पश्चात् उनकी योनि म्लान हो जाती है, उस के पश्चात् उनकी योनि विध्वस्त हो जाती है, उसके पश्चात् योनि क्षीण हो जाती है, उसके पश्चात् बीज अवीज हो जाता है, उसके पश्चात् योनि का विच्छेद हो जाता है (206) / संवत्सर-सूत्र २१०-पंच संवच्छरा पण्णता, तं जहा----णक्खत्तसंवच्छरे, जुगसंवच्छरे, पमाणसंवच्छरे, लक्खणसंवच्छरे, सणिचरसंवच्छरे / संवत्सर (वर्ष) पाँच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. नक्षत्र-संवत्सर, 2. युगसंवत्सर, 3. प्रमाण-संवत्सर, 4. लक्षण-संवत्सर, 5. शनिश्चर संवत्सर (210) / २११-जुगसंवच्छरे पंचविहे पणत्ते, तं जहा-चंदे, चंदे, अभिवट्टिते, चंदे, अभिवट्टिते चेव / युगसंवत्सर पाँच प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. चन्द्र-संवत्सर, 2. चन्द्र-संवत्सर, 3. अभिवधित संवत्सर, 4. चन्द्र-संवत्सर, 5. अभिवधित-संवत्सर (211) / २१२-पमाणसंवच्छरे पंचविहे पण्णते, तं जहा-णक्खत्ते, चंदे, उऊ, प्रादिच्चे, अभिवट्टिते / प्रमाण-संवत्सर पाँच प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. नक्षत्र-संवत्सर, 2. चन्द्र-संवत्सर, 3. ऋतु-संवत्सर, 4. आदित्य-संवत्सर, 5. अभिवधित-संवत्सर / (212) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy