________________ पंचम स्थान-तृतीय उद्देश ] [ 517 सत्व-सूत्र १९८-~-पंच पुरिसजाया पण्णता, त जहा-हिरिसत्ते, हिरिमणसत्ते, चलसत्ते, थिरसत्ते, उदयणसत्ते। पुरुष पाँच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. ह्रीसत्त्व लज्जावश हिम्मत रखने वाला। 2. ह्रीमनःसत्त्व-लज्जावश भी मन में ही हिम्मत लाने वाला, (देह में नहीं)। 3. चलसत्त्व-हिम्मत हारने वाला। 4. स्थिरसत्त्व-विकट परिस्थिति में भी हिम्मत को स्थिर रखने वाला। 5. उदयनसत्त्व-उत्तरोत्तर प्रवर्धमान सत्त्व या पराक्रम वाला (198) / भिक्षाक-सूत्र १६६-पंच मच्छा पण्णत्ता, तजहा-अणुसोतचारी, पडिसोतचारी, अंतचारी, मज्मचारी, सव्वचारी। एवामेव पंच भिक्खागा पण्णत्ता, तं जहा---अणुसोतचारी, (पडिसोतचारी, अंतचारी, मभचारी), सव्वचारी। मत्स्य (मच्छ) पाँच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. अनुस्रोतचारी-जल-प्रवाह के अनुकूल चलने वाला। 2, प्रतिस्रोत चारी-जल-प्रवाह के प्रतिकूल चलने वाला / 3. अन्तचारी---जल-प्रवाह के किनारे-किनारे चलने वाला। 4. मध्यचारी-जल-प्रवाह के मध्य में चलने वाला। 5. सर्वचारी-जल में सर्वत्र विचरण करने वाला। इसी प्रकार भिक्षुक भी पाँच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे--- 1. अनुस्रोतचारी-उपाश्रय से लेकर सीधी गृहपंक्ति से गोचरी लेने वाला। 2. प्रतिस्रोतचारी-गली के अन्तिम गृह से उपाश्रय तक घरों से गोचरी लेने वाला / 3. अन्तचारी-ग्राम के अन्तिम भाग में स्थित ग्रहों से गोचरी लेने वाला या उपाश्रय के पार्श्ववर्ती गहों से गोचरी लेने वाला। 4. मध्यचारी-ग्राम के मध्य भाग से गोचरी लेने वाला। 5. सर्वचारी--ग्राम के सभी भागों से गोचरी लेने वाला (169) / वनीपक-सूत्र २००-पंच वणीमगा पणत्ता, त जहा-अतिहिवणीमगे, किवणवणीमगे, माहणवणीमगे, साणवणीमगे, समणवणीमगे / बनीपक (याचक) पाँच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. अतिथि-वनीपक-अतिथिदान की प्रशंसा कर भोजन मांगने वाला / 2. कृपण-वनीपक- कृपणदान की प्रशंसा करके भोजन माँगने वाला। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org