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________________ 504] / स्थानाङ्गसूत्र आचार्य-उपाध्याय-गणापक्रमण-सूत्र १६७–पंचर्चाहं ठाणेहि प्रायरिय-उवज्झायस्स गणावक्कमणे यण्णत्ते, त जहा१. प्रायरिय-उवज्झाए गणंसि पाणं वा धारणं वा णो सम्म पउंजित्ता भवति / 2. पायरिय-उवज्झाए गणंसि प्राधारायणियाए कितिकम्मं वेणइयं णो सम्म पउंजित्ता भवति / 3. पायरिय-उवज्झाए गणसि जे सुयपज्जवजाते धारेति, ते काले-काले णो सम्ममणप वादेत्ता भवति / 4. प्रायरिय-उवज्झाए गणंसि सगणियाए वा परगणियाए वा णिग्गंथीए बहिल्लेसे भवति / 5. मित्ते णातिगणे वा से गणाम्रो प्रवक्कमेज्जा, तेसि संगहोबग्गहट्टयाए गणावक्कमणे पण्णत्ते। पांच कारणों से प्राचार्य और उपाध्याय का गणापक्रमण (गण से बाहर निर्गमन) कहा गया है / जैसे-- 1. यदि आचार्य या उपाध्याय गण में प्राज्ञा या धारणा के सम्यक् प्रयोक्ता नहीं हों। 2. यदि आचार्य और उपाध्याय गण में यथारात्निक कृतिकर्म (वन्दन और विनयादिक) के सम्यक् प्रयोक्ता नहीं हों। 3. यदि आचार्य और उपाध्याय जिन श्रुत-पर्यायों को धारण करते हैं, उनको समय-समय पर गण को सम्यक् वाचना नहीं देवें। 4. यदि आचार्य या उपाध्याय अपने गण की, या पर-गण को निनन्थी में बहिर्लेश्य (आसक्त) हो जावें। 5. प्राचार्य या उपाध्याय के मित्र ज्ञातिजन (कुटुम्बी आदि) गण से चले जायें तो उन्हें पुन: __गण में संग्रह करने या उपग्रह करने के लिए गण से अपक्रमण करना कहा गया है विवेचन—प्राचार्य और उपाध्याय गण के स्वामी और प्रधान होते हैं। उनका संघ या गण का सम्यक् प्रकार से संचालन करना कर्तव्य है। किन्तु जब वे यह अनुभव करते हैं कि गण में मेरी आज्ञा या धारणा की अवहेलना हो रही है, तो वे गण छोड़ कर चले जाते हैं। दूसरा कारण वन्दन और विनय का सम्यक् प्रयोग न कर सकना है। यद्यपि प्राचार्य और उपाध्याय का गण में सर्वोपरि स्थान है, तथापि प्रतिक्रमण और क्षमा-याचना के समय दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ और श्रत के विशिष्ट ज्ञाता साधुओं का विशेष सम्मान करना चाहिए। यदि वे अपने पद के अभिमान से वैसा नहीं करते हैं, तो गण में असन्तोष या विग्रह खड़ा हो जाता है, ऐसी दशा में वे गण छोड़कर चले जाते हैं / तीसरा कारण गणस्थ साधुओं को, स्वयं जानते हुए भी यथासमय सूत्र या अर्थ या उभय की की वाचना न देना है / इससे गण में क्षोभ उत्पन्न हो जाता है और आचार्य या उपाध्याय पर पक्षपात का दोषारोपण होने लगता है। ऐसी दशा में उन्हें गण से चले जाने का विधान किया गया है। चौथा कारण संघ की निन्दा होने या प्रतिष्ठा गिरने का है, अतः उनका स्वयं ही गण से बाहर चले जाना उचित माना गया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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