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________________ पंचम स्थान-द्वितीय उद्देश ] [ 503 4. उन्मादप्राप्त--पित्त-विकार से उन्मन्त या पागल हुई। 5. उपसर्गप्राप्त--देव, मनुष्य या तिर्यच कृत उपद्रव से पीड़ित / 6. साधिकरणा-कलह करती हुई या लड़ने के लिए उद्यत / 7. सप्रायश्चित्त--प्रायश्चित्त के भय से पीड़ित या डरी हुई। 8. भक्त-पान-प्रत्याख्यात--जीवन भर के लिए अशन-पान का त्याग करने वाली। 6. अर्थजात--अर्थ-(प्रयोजन-) विशेष से, अथवा धनादि के लिए पति या चोर आदि के द्वारा संयम से चलायमान की जाती हुई। उपर्युक्त सभी दशाओं में निर्ग्रन्थी की रक्षार्थ निर्ग्रन्थ उसे ग्रहण या अवलम्बन देते हुए जिनआज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता। आचार्य-उपाध्याय-अतिशेष-सत्र १६६—ायरिय-उवज्झायस्स णं गणसि पंच अतिसेसा पण्णता, तं जहा१. पायरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स पाए णिज्झिय-णिज्झिय पप्फोडेमाणे बा पमज्जेमाणे वा णातिक्कमति / 2. प्रायरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स उच्चारपासवणं विगिचमाणे वा विसोधेमाणे वा णातिक्कमति। 3. प्रायरिय-उवज्झाए पभू, इच्छा वेयावडियं करेज्जा, इच्छा णो करेज्जा। 4. पायरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स एगरातं वा दुरातं वा एगगो वसमाण जातिक्कमति। 5. पायरिय-उवज्झाए बाहिं उवस्सयस्स एगरातं वा दुरातं वा [एगो ?] वसमाणे णातिक्कमति। गण में प्राचार्य और उपाध्याय के पांच अतिशेष (अतिशय) कहे गये हैं। जैसे-- 1. प्राचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के भीतर पैरों की धूलि को सावधानी से झाड़ते हुए या फटकारते हुए प्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं। 2. प्राचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के भीतर उच्चार (मल) और प्रस्रवण (मूत्र) का व्युत्सर्ग और विशोधन करते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं। 3. प्राचार्य और उपाध्याय की इच्छा हो तो वे दूसरे साधु की वैयावृत्त्य करें, इच्छा न हो तो न करें, इसके लिए वे प्रभु (स्वतंत्र) हैं। 4. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के भीतर एक रात्रि या दो रात्रि अकेले रहते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं। 5. प्राचार्य और उपाध्याय उपाश्रय से बाहर एक रात्रि या दो रात्रि अकेले रहते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं (166) / विवेचन--सूत्र की वाचना देने वाले को उपाध्याय और अर्थ की वाचना देने वाले को आचार्य कहते हैं / साधारण साधुओं की अपेक्षा प्राचार्य और उपाध्याय को जो विशेष अधिकार प्राप्त होते हैं, उन्हें अतिशेष या अतिशय कहते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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