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________________ पंचम स्थान-द्वितीय उद्देश ] [483 2. मध्यम वर्षावास-श्रावणकृष्णा प्रतिपदा से लेकर कात्तिको पूर्णमासी तक चार मास या 120 दिन का होता है / 3. उत्कृष्ट वर्षावास-प्राषाढ़ से लेकर मगसिर तक छह मास का होता है। प्रथम सूत्र के द्वारा प्रथम प्रावष में विहार का निषेध किया गया है और दूसरे सूत्र के द्वारा वर्षावास में बिहार का निषेध किया गया है। दोनों सूत्रों की स्थिति को देखते हुए यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि पर्युषणाकल्प को स्वीकार करने के पूर्व जो वर्षा का समय है उसे 'प्रथम प्रावृष' पद से चित किया गया है। अतः प्रथम प्रावट का अर्थ आषाढ़ मास है। आषाढ़ मास में विहार करने का निषेध है। प्रावट का अर्थ वर्षाकाल लेने पर पूर्वप्रावट का अर्थ होगा-भाद्रपद शक्ला पंचमी से कात्तिकी पूर्णिमा का समय / इस समय में विहार का निषेध किया गया है। तीन ऋतुओं की गणना में 'वर्षा' एक ऋतु है। किन्तु छह ऋतुओं को गणना में उसके दो भेद हो जाते हैं, जिसके अनुसार श्रावण और भाद्रपद ये दो मास प्रावृष् ऋतु में, तथा प्राश्विन और कात्तिक में दो मास वर्षा ऋतु में परिगणित होते हैं। इस प्रकार दोनों सूत्रों का सम्मिलित अर्थ है कि श्रावण से लेकर कात्तिक मास तक चार मासों में साधु और साध्वियों को विहार नहीं करना चाहिए। यह उत्सर्ग मार्ग है। हां, सूत्रोक्त कारण-विशेषों की अवस्था में विहार किया भी जा सकता है यह अपवाद मार्ग है। उत्कृष्ट वर्षावास के छह मास काल का अभिप्राय यह है कि यदि आषाढ़ के प्रारम्भ से ही पानी बरसने लगे और मगसिर मास तक भी बरसता रहे तो छह मास का उत्कृष्ट वर्षावास होता है। वर्षाकाल में जल की वर्षा से असंख्य त्रस जीव पैदा हो जाते हैं, उस समय विहार करने पर छह काया के जीवों की विराधना होती है / इसके सिवाय अन्य भी दोष वर्षाकाल में विहार करने पर बताये गये हैं, जिन्हें संस्कृतटीका से जानना चाहिए / अनुदात्य-सूत्र __१०१-पंच अणुग्घातिया पण्णता, तं जहा-हत्थकम्मं करेमाणे, मेहुणं पडिसेवेमाणे, रातीभोयणं भुजेमाणे, सागारियर्यापडं भुजेमाणे, रायपिंडं भुजेमाणे / पाँच अनुद्घात्य (गुरुप्रायश्चित्त के योग्य) कहे गये हैं। जैसे१. हस्त-(मैथुन-) कर्म करने वाला। 2. मैथन की प्रतिसेवना (स्त्री-संभोग) करने वाला / 3. रात्रि-भोजन करने वाला। 4. सागारिक-(शय्यातर-) पिण्ड को खाने वाला। 5. राज-पिण्ड को खाने वाला (101) / विवेचन-प्रायश्चित्त शास्त्र में दोष की शुद्धि के लिए दो प्रकार के प्रायश्चित्त बताये गये हैंलघु-प्रायश्चित्त और गुरु-प्रायश्चित्त / लघु-प्रायश्चित्त को उद्घातिक और गुरु-प्रायश्चित्त को अनुदघातिक प्रायश्चित्त कहते हैं। सूत्रोक्त पाँच स्थानों के सेवन करने वाले को अनुद्घात प्रायश्चित्त देने का विधान है. उसे किसी भी दशा में कम नहीं किया जा सकता है। पाँच कारणों में से प्रारम्भ के तीन कारण तो स्पष्ट हैं। शेष दो का अर्थ इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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