SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 548
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 480 / [ स्थानाङ्गसूत्र अर तीर्थंकर के पाँच कल्याणक रेवती नक्षत्र में हुए / जैसे-- 1. रेवती नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में पाये / इत्यादि (62) / मनिसुव्रत तीर्थकर के पांच कल्याणक श्रवण नक्षत्र में हए। जैसे१. श्रवण नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में आये / इत्यादि (63) / नमि तीर्थंकर के पांच कल्याणक अश्विनी नक्षत्र में हुए / जैसे१. अश्विनी नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में आये / इत्यादि (94) / नेमि तीर्थंकर के पंच कल्याणक चित्रा नक्षत्र में हुए / जैसे१. चित्रा नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में पाये / इत्यादि (65) / पार्श्व तीर्थंकर के पांच कल्याणक विशाखा नक्षत्र में हुए / जैसे१. विशाखा नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में आये / इत्यादि (66) / ९७-समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे होत्था, तं जहा—१. हत्थुत्तराहि चुते चइत्ता गम्भं वक्कते / 2. हत्थुत्तराहि गब्भारो गन्भं साहरिते। 3. हत्थुत्तराहि जाते। 4. हत्युत्तराहि मुंडे भवित्ता जाव (मगाराप्रो अणगारितं) पन्वइए / 5. हत्युत्तराहि अणते अणुत्तरे जाव (णिव्वाधाए णिरावरणे कसिणे पडिपुण्णे) केवलवरणाणदंसणे समुप्पण्णे / श्रमण भगवान् महावीर के पंच कल्याणक हस्तोत्तर (उत्तरा फाल्गुनी) नक्षत्र में हुए जैसे१. हस्तोत्तर नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में आये। 2. हस्तोत्तर नक्षत्र में देवानन्दा के गर्भ से त्रिशला के गर्भ में संहृत हुए। 3. हस्तोत्तर नक्षत्र में जन्म लिया / 4. हस्तोत्तर नक्षत्र में अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए। 5. हस्तोत्तर नक्षत्र में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, सम्पूर्ण, परिपूर्ण केवल वर __ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न हुआ। विवेचन-जिनसे त्रिलोकवर्ती जीवों का कल्याण हो, उन्हें कल्याणक कहते हैं। तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, निष्क्रमण (प्रव्रज्या) केवलज्ञानप्राप्ति और निर्वाण-प्राप्ति ये पाँचों ही अवसर जीवों को सुख-दायक हैं। यहां तक कि नरक के नारक जीवों को भी उक्त पांचों कल्याणकों के समय कुछ समय के लिए सुख की लहर प्राप्त हो जाती है। इसलिए तीर्थंकरों के गर्भ-जन्मादि को कल्यापक कहा जाता है ।(भ० महावीर का निर्वाण स्वाति नक्षत्र में हुअा था)। / पंचम स्थान का प्रथम उद्देश समाप्त हुमा / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy