________________ स्थानांगसूत्र२६१ में बताया है कि मध्यलोक में चन्द्र, सूर्य, मणि, ज्योति, अग्नि प्रादि से प्रकाश होता है। अंगुत्तरनिकाय 62 में आभा, प्रभा, आलोक, प्रज्योत, इन प्रत्येक के चार-चार प्रकार बताये हैं—चन्द्र, सूर्य, अग्नि और प्रज्ञा / स्थानांग२६३ में लोक को चौदह रज्जु कहकर उसमें जीव और अजीव द्रव्यों का सद्भाव बताया है / वैसे ही अंगुत्तरनिकाय२६४ में भी लोक को अनन्त कहा है। तथागत बुद्ध ने कहा है--पाँच कामगुण रूप रसादि यही लोक है। और जो मानव पाँच कामगुणों का परित्याग करता है, वही लोक के अन्त में पहुँच कर वहाँ पर विचरण करता है। स्थानांग 265 में भूकम्प के तीन कारण बताये हैं। (1) पृथ्वी के नीचे का घनवात व्याकुल होता है। उससे समुद्र में तूफान पाता है। (2) कोई महेश महोरग देव अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन करने के लिये पृथ्वी को चलित करता है। (3) देवासुर संग्राम जब होता है तब भूकम्प प्राता है / अंगुत्तरनिकाय२६६ में भूकम्प के पाठ कारण बताये हैं--पृथ्वी के नीचे की महावायु के प्रकम्पन से उस पर रही हई पृथ्वी प्रकम्पित होती है। (2) कोई श्रमण ब्राह्मण अपनी ऋद्धि के बल से पृथ्वी-भावना को करता है। (3) जब बोधिसत्व माता के गर्भ में पाते हैं। (4) जब बोधिसत्त्व माता के गर्भ से बाहर आते हैं। (5) जब तथागत अनुत्तर ज्ञान-लाभ प्राप्त करते हैं। (6) जब तथागत धर्म-चक्र का प्रवर्तन करते हैं / (7) जब तथागत प्रायु संस्कार को समाप्त करते हैं। (8) जब तथागत निर्वाण को प्राप्त होते हैं। स्थानांग२६७ में चक्रबर्ती के चौदह रत्नों का उल्लेख है तो दीघनिकाय२६८ में चक्रवर्ती के सात रत्नों का उल्लेख है। __स्थानांग 266 में बुद्ध के तीन प्रकार बताये हैं- ज्ञानबुद्ध, दर्शनबुद्ध और चारित्रबुद्ध तथा स्वयंसबुद्ध, प्रत्येकबुद्ध और बुद्धबोधित / अंगुत्तरनिकाय२७° में बुद्ध के तथागतबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध ये दो प्रकार बताये हैं / स्थानांग२७१ में स्त्री के चरित्र का वर्णन करते हुए चतुर्भगी बतायी है। वैसे ही अंगतरनिकाय 272 में भार्या की सप्तभंगी बतायी हैं--(१) वधक के समान (2) चोर के समान (3) अय्य के समान (4) अकर्मकामा (5) आलसी (6) चण्डी (7) दुरुक्तवादिनी। माता के समान, भगिनी के समान, सखी के समान, दासी के समान स्त्री के ये अन्य प्रकार भी बताये हैं। स्थानांग 273 में चार प्रकार के मेघ बताये हैं-(१) गर्जना करते हैं पर बरसते नहीं हैं (2) गर्जते नहीं 261. स्थानांग-.-स्थान 4 262. अंगुत्तरनिकाय 41141, 145 263. स्थानांगसूत्र 8 264. अंगुत्तरनिकाय 8170 265. स्थानांग-३ 266. अंगुत्तरनिकाय 4 / 141, 145 267. स्थानांग सूत्र-७ 268. दीघनिकाय--१७ 269. स्थानाग 31156 270. अंगुत्तरनिकाय 165 271. स्थानांग 279 272. अंगुत्तरनिकाय 7.59 273. स्थानांग 41346 [ 50] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org