________________ महाभारत२५० में प्राणियों के छह प्रकार के वर्ण बताये हैं / सनत्कुमार ने दानवेन्द्र वृत्रासुर से कहाप्राणियों के वर्ण छह होते हैं-कृष्ण, धम्र, नील, रक्त, हारिद्र और शक्ल / इनमें से कृष्ण, धम्र और नील वर्ण का सुख मध्यम होता है। रक्त वर्ण अधिक सह्य होता है, हारिद्र वर्ण सुखकर और शुक्ल वर्ण अधिक सुखकर होता है। गीता२५१ में गति के कृष्ण और शुक्ल ये दो विभाग किये हैं। कृष्ण गतिवाला पुनः पुनः जन्म लेता है और शुक्ल गतिवाला जन्म-मरण से मुक्त होता है / धम्मपद२५२ में धर्म के दो विभाग किये हैं। वहाँ वर्णन है कि पण्डित मानव को कृष्ण धर्म को छोड़कर शुक्ल धर्म का आचरण करना चाहिए। पतंजलि२५३ ने पातंजलयोगसूत्र में कर्म की चार जातियाँ प्रतिपादित की हैं। कृष्ण, शक्ल कृष्ण, शुक्ल अशुक्ल अकृष्ण, ये क्रमशः अशुद्धतर, अशुद्ध, शुद्ध और शुद्धतर हैं। इस तरह स्थानांग सूत्र में आये हुये लेण्यापद से प्रांशिक दृष्टि से तुलना हो सकती है। स्थानांग 254 में सुगत के तीन प्रकार बताये हैं—(१) मिद्धिसुगत, (2) देवसुगत (3) मनुष्यसुगत / अंगुत्तरनिकाय में भी राग-द्वेष और मोह को नष्ट करनेवाले को सुगत कहा है / 254 स्थानांग के अनुसार 255 पाँच कारणों से जीव दुर्गति में जाता है / वे कारण है—(१) हिंसा, (2) असत्य (3) चोरी (4) मैथुन (5) परिग्रह / अंगुत्तरनिकाय२५६ में नरक जाने के कारणों पर चिन्तन करते हुये लिखा है-अकुशल कायकर्म, अकुशल वाककर्म, अकुशल मन:कर्म, सावध आदि कर्म / श्रमण के लिये स्थानांग२५७ में छह कारणों से आहार करने का उल्लेख है-(२) क्षुधा की उपशान्ति (2) वैयावृत्य (3) ईर्याशोधन (4) संयमपालन (5) प्राणधारण (6) धर्मचिन्तन / अंकुत्तरनिकाय में आनन्द ने एक श्रमणी को इसी तरह का उपदेश दिया है / 258 स्थानांग२५६ में इहलोक भय, परलोकभय, आदानभय, अकस्मात् भय, वेदनाभय, मरणभय, अश्लोकभय, आदि भयस्थान बताये हैं तो अंगुत्तरनिकाय२६° में भी जाति, जन्म, जरा, व्याधि, मरण, अग्नि, उदक, राज, चोर, प्रात्मानुवाद--अपने दुश्चरित का विचार (दूसरे मुझे दुश्चरित्रवान् कहेंगे यह भय), दण्ड, दुर्गति, आदि अनेक भयस्थान बताये हैं। 250. महाभारत, शान्तिपर्व 280133 251. गीता का२६ 252. धम्मपद पण्डितवम्ग, श्लोक 19 253. पातंजलयोगसूत्र 47 254. स्थानांगसूत्र–१८४ 254. अंगुत्तरनिकाय 3 / 72 255. स्थानांग 391 // 256. अंगुत्तरनिकाय 372 257. स्थानांग 500 258. अंगुत्तरनिकाय 4 / 159 259. स्थानांग 549 260. अंगुत्तरनिकाय 41119 [ 49 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org