________________ 444] [स्थानाङ्गसूत्र अधस्तन (नीचे के) चार कल्प अर्धचन्द्र आकार से स्थित हैं / जैसे-- 1. सौधर्मकल्प, 2. ईशानकल्प, 3. सनत्कुमारकल्प, 4. माहेन्द्रकल्प / ६५०–मझिल्ला चत्तारि कप्पा पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिया पण्णत्ता, तं जहा-बंभलोगे, लंतए, महासुक्के, सहस्सारे / मध्यवर्ती चार कल्प परिपूर्ण चन्द्र के आकार से स्थित कहे गये हैं / जैसे१. ब्रह्मलोककल्प, 2. लान्तककल्प, 3. महाशुक्रकल्प, 4. सहस्रारकल्प (650) / ६५१---उवरिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचंदसंठाणसंठिया पण्णत्ता, तं जहा---प्राणते, पाणते, प्रारणे, अच्चुते / उपरिम चार कल्प अर्ध चन्द्र के आकार से स्थित कहे गये हैं। जैसे 1. आनतकल्प, 2. प्राणतकल्प, 3. पारणकल्प, 4. अच्युतकल्प (651) / समुद्र-सूत्र ६५२--चत्तारि समुद्दा पत्तेयरसा पण्णत्ता, तं जहा-लवणोदे, वरुणोदे, खीरोदे, घतोदे। चार समुद्र प्रत्येक रस (भिन्न-भिन्न रस) वाले कहे गये हैं। जैसे१. लवणोदक-लवण-रस के समान खारे पानी वाला। 2. वरुणोदक-मदिरा-रस के समान पानी वाला। 3. क्षीरोदक-दुग्ध-रस के समान पानी वाला / 4. घृतोदकः----घृत-रस के समान पानी वाला (652) / कषाय-सूत्र ६५३–चत्तारि पावत्ता पण्णत्ता, तं जहा--खरावते, उण्णतावत्ते, गूढावत्ते, प्रामिसावत्ते / एवामेव चत्तारि कसाया पण्णता, तं जहा--खरावत्तसमाणे कोहे, उण्णतावत्ससमाणे माणे, गूढावत्तसमाणा माया, प्रामिसावत्तसमाणे लोभे। 1. खरावत्तसमाणं कोहं अणुपविट्ठ जीवे कालं करेति, रइएसु उववज्जति / 2. (उण्णतावत्तसमाणं माणं अणुपविटु जीवे कालं करेति, रइएसु उववज्जति / 3. गूढावत्ससमाणं मायं अणुपविट्ठ जीवे कालं करेति, रइएसु उववज्जति)। 4. प्रामिसावत्तसमाणं लोभमणुपविट्ठ जोवे कालं करेति, रइएसु उववज्जति / चार पावर्त (गोलाकार धुमाव) कहे गये हैं / जैसे -- 1. खरावर्त-अतिवेगवाली जल-तरंगों के मध्य होने वाली गोलाकार भंवर / 2. उन्नताबर्त--पर्वत-शिखर पर चढ़ने का घुमावदार मार्ग, या वायु का गोलाकार बवंडर / --गेंद के समान सर्व ओर से गोलाकार आवर्त / 4. आमिषावर्त---मांस के लिए गिद्ध आदि पक्षियों का चक्कर वाला परिभ्रमण (653) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org