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________________ [443 चतुर्थ स्थान-चतुर्थ उद्देश ] ६४६-एवं-वाउक्काइयाणवि / इसी प्रकार वायुकायिक जीवों के भी चार समुद्घात होते हैं / विवेचन--मूल शरीर को नहीं छोड़ते हुए किसी कारण-विशेष से जीव के कुछ प्रदेशों के बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं। समुद्घात के सात भेद आगे सातवें स्थान के सूत्र 138 में कहे गये हैं। उनमें से नारक और वायुकायिक जीवों के केवल चार ही समुद्घात होते हैं। उनका अर्थ इस प्रकार है 1. वेदना की तीव्रता से जीव के कुछ प्रदेशों का बाहर निकलना वेदनासमुद्घात है। 2. कषाय की तीव्रता से जीव के कुछ प्रदेशों का बाहर निकलना कषायसमुद्घात है। 3. मारणान्तिक दशा में मरण के अन्तर्मुहूर्त पूर्व जीव के कुछ प्रदेश निकल कर जहां उत्पन्न होना है, वहां तक फैलते चले जाते हैं और उस स्थान का स्पर्श कर वापिस शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं / इसे मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं। इसके कुछ क्षण के बाद जीव का मरण होता है। 4. वैक्रिय समुद्घात-शरीर के छोटे-बड़े आकारादि के बनाने को वैक्रिय समुद्घात कहते हैं। नारक जीवों के समान वायुकायिक जीवों के भी निमित्तविशेष से शरीर छोटे-बड़े रूप संकुचित-विस्तृत होते रहते हैं अतः उनके वैक्रिय समुद्घात कहा गया है (646) / चतुर्दशपूवि-सूत्र ६४७-अरहतो णं अरिटमिस्स चत्तारि सया चोद्दसयुवीणमजिणाणं जिससंकासाणं सबक्खरसण्णिवाईणं जिणो [जिणाणं? ] इव अवितथं वागरमाणाणं उक्कोसिया चउद्दसव्विसंपया हत्था / अरहन्त अरिष्टनेमि के चतुर्दश-पूर्व-वेत्ता मुनियों की संख्या चार सौ थी। वे जिन नहीं होते हुए भी जिन के समान सर्वाक्षरसन्निपाती (सभी अक्षरों के संयोग से बने संयुक्त पदों के और उनसे निर्मित बीजाक्षरों के ज्ञाता) थे, तथा जिन के समान ही अवितथ-(यथार्थ-) भाषी थे। यह अरिष्टनेमि के चौदह पूवियों की उत्कृष्ट सम्पदा थी (647) / वादि-सत्र ६४८--समणस्स णं भगवश्री महावीरस्स चत्तारि सया वादीणं सदेवमणुयासुराए परिसाए अपराजियाणं उक्कोसिता वादिसंपया हुत्था / श्रमण भगवान् महावीर के वादी मुनियों की संख्या चार सौ थी। वे देव-परिषद, मनुजपरिषद् और असुर-परिषद् में अपराजित थे / अर्थात् उन्हें कोई भी देव, मनुष्य या असुर जीत नहीं सकता था / यह उनके वादी-शिष्यों को उत्कृष्ट सम्पदा थी (648) / कल्प-सूत्र ६४९--हेदिल्ला चत्तारि कप्पा प्रद्धचंदसंठाणसंठिया पण्णता, तं जहा-सोहम्मे, ईसाणे, सणंकुमारे, माहिदे। 1. मुलसरीरमछडिय उत्तरदेहस्स जीवपिंडस्स / णिग्गमणं देहादो होदि समुग्चाद णामं तु / / 667 / / गो. जीवकाण्ड / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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