________________ चतुर्थ स्थान--चतुर्थ उद्देश ] [441 1. नीलवर्ण वाले, 2. लोहित (रक्त) वर्ण वाले, 3. हारिद्र (पीत) वर्ण वाले, 4. शुक्ल (श्वेत) वर्ण वाले (638) / देव-सूत्र ___636- महासुक्क-सहस्सारेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जा सरोरगा उक्कोसेणं चत्तारि रयणीग्रो उडू उच्चत्तेणं पण्णत्ता। महाशुक्र और सहस्रार कल्पों में देवों के भवधारणोय (जन्म से मृत्यु तक रहने वाला मूल) शरीर उत्कृष्ट ऊंचाई से चार रत्लि-प्रमाण (चार हाथ के) कहे गये हैं (636) / गर्भ-सूत्र ६४०-~चत्तारि दगगब्भा पण्णत्ता, तं जहा--उस्सा, महिया, सीता, उसिणा। उदक के चार गर्भ (जल वर्षा के कारण) कहे गये हैं / जैसे१. अवश्याय (प्रोस) 2. मिहिका (कुहरा, धूवर) 3. अतिशीतलता 4. अतिउष्णता (640) / ६४१-चत्तारि गगम्भा पण्णत्ता, तं जहा–हेमगा, अब्भसंथडा, सीतोसिणा, पंचरूविया। संग्रहणी-गाथा माहे उ हेमगा गम्भा, फग्गुणे अब्भसंथडा। सीतोसिणा उ चित्त, वइसाहे पंचरूविया // 1 // पुनः उदक के चार गर्भ कहे गये हैं / जैसे१. हिमपात, 2. मेघों से आकाश का आच्छादित होना, 3. अति शीतोष्णता, 4. पंचरूपिता (वायु, बादल, गरज, बिजली और जल इन पांच का मिलना) (641) / 1. माघ मास में हिमपात से उदक-गर्भ रहता है। फाल्गुन मास में आकाश के बादलों से पाच्छादित रहने से उदक-गर्भ रहता है / चैत्र मास में अतिशीत और अतिउष्णता से उदक-गर्भ रहता है / वैशाख मास में पंचरूपिता से उदक-गर्भ रहता है। ६४२–चत्तारि मणुस्सीगम्भा पण्णत्ता, तं जहा-इत्थित्ताए. पुरिसत्ताए, णपुंसगत्ताते, बिबत्ताए। संग्रहणी-गायाएं अप्पं सुक्कं बहुं ओयं, इत्थी तत्थ पजायति / अप्पं प्रोयं बहु सुक्कं, पुरिसो तत्थ जायति // 1 // दोण्हपि रत्तसुक्काणं, तुल्लभावे णपुसत्रो। इत्थी-पोय-समायोगे, बिबं तत्थ पजायति // 2 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org