________________ स्थानांगरे 26 में जिन कारणों से प्रात्मा के साथ कर्म का बन्ध होता है। उन्हें पाश्रव कहा है। मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद, कषाय और योग, ये पाश्रव हैं। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय 226 में प्राश्रव का मूल "अविद्या" बताया है। अविद्या के निरोध से पाश्रव का अपने पाप निरोध होता है। आश्रव के कामाश्रव, भवाधव, अविद्याश्रव, ये तीन भेद किये हैं। मज्झिमनिकाय 30 के अनुसार मन, वचन और काय की क्रिया को ठीक-ठीक करने से अाधव रुकता है। प्राचार्य उमास्वाति 1 ने भी काय-वचन और मन की क्रिया को योग कहा है वही आश्रव है। स्थानांग सूत्र में विकथा के स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा, राजकथा, मदुकारुणिककथा, दर्शनभेदिनीकथा और चारित्रभेदनीकथा, ये सात प्रकार बताये हैं / 232 बद्ध ने विकथा के स्थान पर 'तिरच्छान' शब्द का प्रयोग किया है। उसके राजकथा, चोरकथा, महामात्यकथा, सेनाकथा, भयकथा, युद्धकथा, अन्नकथा, पानकथा, वस्त्रकथा, शयनकथा, मालाकथा, गन्धकथा, ज्ञातिकथा, यानकथा, ग्रामकथा, निगमकथा, नगरकथा, जनपदकथा, स्त्रीकथा, आदि अनेक भेद किये हैं। 2 33 स्थानांगरे 34 में राग अोर द्वष से पाप कर्म का बन्ध बताया है। अंगुत्तर निकाय२३५ में तीन प्रकार से कर्मसमुदय माना है---लोभज, दोषज, और मोहज / इनमें भी सब से अधिक मोहज को दोषजनक माना है / 236 स्थानांग२३७ में जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपोमद, श्र तमद, लाभमद और ऐश्वर्यमद ये पाठ मदस्थान बताये हैं तो अंगुत्तरनिकाय 218 में मद के तीन प्रकार बताये हैं----यौवन, आरोग्य और जीवितमद / इन मदों से मानव दुराचारी बनता है / स्थानांग 23 में पाश्रव के निरोध को संवर कहा है और उसके भेद-प्रभेदों की चर्चा भी की गयी है। तथागत बुद्ध ने अंगुत्तरनिकाय में कहा है 240 कि पाश्रव का निरोध केवल संवर से ही नहीं होता प्रत्युत 241 (1) संवर से (2) प्रतिसेवना से (3) अधिवासना से (4) परिवर्जन से (5) विनोद से (6) भावना से होता है, इन सभी में भी अविद्यानिरोध को ही मुख्य प्राश्रवनिरोध माना है। स्थानांग२४२ में अरिहन्त, सिद्ध, साधु, धर्म, इन चार शरणों का उल्लेख है, तो बद्ध ने 'बद्ध सरणं गच्छामि, धम्म सरणं गच्छामि, संघं सरणं गच्छामि' इन तीन को महत्त्व दिया है। 228. स्थानांग---स्था. 5, मत्र 418 229. अंगुत्तर निकाय-३-५८, 6-63 230. मज्झिमनिकाय-१-१-२ 231. तत्त्वार्थमूत्र, अ. 6, सूत्र 1,2 232. स्थानांगसूत्र स्थान–७, सूत्र 569 233. अंगुत्तरनिकाय 10, 69 234. स्थानांग 96 235. अंगुत्तरनिकाय 313 236. अंगुत्तरनिकाय 3197, 3139 237. स्थानांग 606 238. अंगुत्तरनिकाय 3139 239. स्थानांग 427 240. अंगुत्तरनिकाय 6158 241. अंगुत्तरनिकाय 6 / 63 242. स्थानांगसूत्र-४, [47 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org