SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थानांगसूत्र 249212 में चार कषाय, उनकी उत्पत्ति के कारण, ग्रादि निरूपित हैं / वैसे ही समवायांगर 3 और प्रज्ञापना२ 14 में भी वह वर्णन है। स्थानांगसत्र 215 के सूत्र 282 में चार विकथाएं और विकथाओं के प्रकार का विस्तार से निरूपण है। वैसा वर्णन समवायांग२१६ और प्रश्नव्याकरण२१७ में भी मिलता है। स्थानांगसूत्र२१८ के 3563 सूत्र में चार संज्ञाओं और उनके विविध प्रकारों का वर्णन है। वैसा ही वर्णन समवायांग, प्रश्नव्याकरण 2 16 और प्रज्ञापना 220 में भी प्राप्त है। स्थानांग सूत्र 386221 में अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा के चार-चार ताराओं का वर्णन है / वही वर्णन समवायांग२२२ सूर्यप्रज्ञप्ति 23 आदि में भी है। __ स्थानांगमूत्र 224 के 634 में मगध का योजन आठ हजार धनुष का बताया है। वही वर्णन समवायांग२२५ में भी है। तुलनात्मक अध्ययन : बौद्ध और वैदिक ग्रन्थ __स्थानांग के अन्य अनेक सूत्रों में आये हुये विषयों की तुलना अन्य भागमों के साथ भी की जा सकती है / किन्त विस्तारभय से हम ने संक्षेप में ही सचन किया है। अब हम स्थानांग के विषयों की तुलना बौद्ध और वैदिक ग्रन्थों के साथ कर रहे हैं। जिससे यह परिज्ञात हो सके कि भारतीय संस्कृति कितनी मिली-जली रही है। एक संस्कृति का दूसरी संस्कृति पर कितना प्रभाव रहा है। स्थनांग२२६ में बताया है कि छह कारणों से आत्मा उन्मत्त होता है। अरिहंत का अवर्णवाद करने से, धर्म का प्रवर्णवाद करने से, चतुर्विध संघ का अवर्णवाद करने से, यक्ष के आवेश से, मोहनीय कर्म के उदय से; तो तथागत बुद्ध ने भी अंगुत्तरनिकाय२२७ में कहा है-चार अचिन्तनीय की चिन्ता करने से मानव उन्मादी हो जाता है--(१) तथागत बुद्ध भगवान् के ज्ञान का विषय, (2) ध्यानी के ध्यान का विषय, (3) कर्मविपाक, (4) लोकचिन्ता। 212. स्थानांग, अ. 4, उ. 1, सूत्र 249 213. समवायांग, सग. 4, सूत्र 1 214. प्रज्ञापना, पद. 14, सूत्र 186 215. स्थानांग, अ. 4, उ. 2, सूत्र 282 216. प्रश्नव्याकरण, ५वाँ संवरद्वार 217. समवायांग-सम. 4, सूत्र 4 218. स्थानांगसूत्र-अ. 4, उ. 4, सूत्र 356 219. समवायांग, सम. 4, सूत्र 4 220. प्रज्ञापना सूत्र, पद 8 221. स्थानांग सूत्र---अ. 4, सूत्र 486 222. समवायांग, सम. 4, सूत्र 7 223. सूर्यप्रज्ञप्ति, प्रा 10, प्रा 9, सूत्र 42 224. स्थानांगसत्र-अ.८, उ. 1, सूत्र 634 225. समवायांग सूत्र-सम. 4, सूत्र 6 226. स्थानांग-स्थान-६ 227. अंगुत्तरनिकाय 4-77 [ 46 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy