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________________ चतुर्थ स्थान--चतुर्थ--उद्देश ] [416 चार कारणों से प्राहारसंज्ञा उत्पन्न होती है / जैसे-- 1. पेट के खाली होने से, 2. क्षुधा वेदनीय कर्म के उदय से, 3. पाहार संबंधी वातें सुनने से उत्पन्न होने वाली आहार की बुद्धि से 4. पाहार संबंधी उपयोग-चिन्तन से (578) / ५८०--चउहि ठाणेहि भयसण्णा समुप्पज्जति, त जहा-होणसत्तताए, भयवेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवोगेणं / भयसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है / जैसे१. मत्त्व (शक्ति) को हीनता से, 2. भयवेदनीय कर्म के उदय से, 3. भय की बात सुनने से, 4. भय का मोच-विचार करते रहने से (580) / 581- चहिं ठाणेहि मेहुणसण्णा समुप्पज्जति, त जहा—चितमंससोणिययाए, मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवनोगेणं / मैथुनसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है। जैसे१. शरीर में अधिक मांस, रक्त, वीर्य का संचय होने से, 2. [वेद मोहनीय कर्म के उदय से, 3. मैथुन की बात सुनने से, 4. मैथुन में उपयोग लगाने से (581) / ५८२–चहि ठाणेहि परिग्गहसण्णा समुप्पज्जति, त जहा--प्रविमुत्तयाए, लोभवेयणिज्जस्स कम्मस्त उदएणं, मतीए, तदट्ठोवोगेणं / / परिग्रहसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है। जैसे१. परिग्रह का त्याग न होने से, 2. [लोभ] मोहनीय कर्म के उदय से, 3. परिग्रह को देखने से उत्पन्न होने वाली तद्विषयक बुद्धि से, 4. परिग्रह संबंधी विचार करते रहने से (582) / विवेचन---उक्त चारों सूत्रों में चारों संज्ञा की उत्पत्ति के चार-चार कारण बताये गये हैं। इनमें से क्षुधा या असाता वेदनीय कर्म का उदय पाहार संज्ञा के उत्पन्न होने में अन्तरंग कारण है, भय वेदनीय कर्म का उदय भय संज्ञा के उत्पन्न होने में अन्तरंग कारण है। इसी प्रकार वेदमोहनीय कर्म का उदय मैथुन संज्ञा का और लोभमोहनीय का उदय परिग्रह संज्ञा का अन्तरंग कारण है / शेष तीन-तीन उक्त संज्ञानों के उत्पन्न होने में बहिरंग कारण हैं। गोम्मटसार जीवकाण्ड में भी प्रत्येक संज्ञा के उत्पन्न होने में इन्हीं कारणों का निर्देश किया गया है। वहाँ उदय के स्थान पर उदीरणा का कथन है जो यहाँ भी समझा जा सकता है। तथा यहाँ चारों संज्ञानों के उत्पन्न होने का तीसरा कारण ‘मति' अर्थात् इन्द्रिय प्रत्यक्ष मतिज्ञान कहा है / गो० जीवकाण्ड में इसके स्थान पर आहारदर्शन, अतिभीमदर्शन, प्रणीत (पौष्टिक) रम भोजन और उपकरण-दर्शन को क्रमश: चारों संज्ञाओं का कारण माना गया है (582) / ' 1. गो. जीवकाण्ड गाथा 134-137. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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