________________ 418] [ स्थानाङ्गसूत्र एवामेव चउब्विहा पब्वज्जा पण्णता, त जहा- बाविता, परिवाविता, णिदिता, परिणिदिता। कृषि (खेती) चार प्रकार की कही गई है / जैसे१. वापिता-एक बार बोयी गई गेहूँ आदि की कृषि / / 2. परिवापिता-एक बार बोने पर उगे हुए धान्य को उखाड़कर अन्य स्थान पर रोपण की जाने वाली कृषि। 3. निदाता-बोये गये धान्य के साथ उगी हुई विजातीय घास को नीद कर तैयार होने वाली कृषि / 4. परिनिदाता-बोये गये धान्यादि के सा आदि को अनेक बार नीदने से होने वाली कृषि / इसी प्रकार प्रव्रज्या भी चार प्रकार की कही गई है / जैसे-.. 1. वापिता प्रव्रज्या सामायिक चारित्र में आरोपित करना (छोटी दीक्षा)। 2. परिवापिता प्रव्रज्या-महाव्रतों में आरोपित करना (बड़ी दीक्षा)। 3. निदाता प्रव्रज्या--एक बार आलोचना वाली दीक्षा। 4. परिनिदाता प्रव्रज्या बार-बार पालोचना वाली दीक्षा (576) / ५७७-चउम्विहा पव्वज्जा पण्णत्ता, त जहा—धण्ण जितसमाणा धग्णविरल्लितसमाणा, धण्णविक्खित्तसमाणा, धण्णसंकट्टितसमाणा। पुनः प्रव्रज्या चार प्रकार की कही गई है। जैसे१. पुजितधान्यसमाना-साफ किये गये खलिहान में रखे धान्य-पुज के समान निर्दोष प्रव्रज्या / 2. विसरितधान्यसमाना--साफ किये गये, किन्तु खलिहान में विखरे हुए धान्य के समान अल्प-अतिचार बालो प्रव्रज्या। 3. विक्षिप्तधान्यसमाना-खलिहान में बैलों आदि के द्वारा कुचले गए धान्य के समान बहु अतिचार वाली प्रव्रज्या / 4. संकर्षितधान्यसमाना—खेत से काट कर खलिहान में लाए गए धान्य-पूलों के समान बहुतर अतिचार वाली प्रव्रज्या (577) / संज्ञा-सूत्र ५७८–चत्तारि सण्णाश्रो पण्णत्तायो, त जहा--ग्राहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा। संज्ञाएं चार प्रकार की कही गई हैं। जैसे-- 1. आहारसंज्ञा, 2. भयसंज्ञा, 3. मैथुनसंज्ञा, 4. परिग्रहसंज्ञा / ५७६-चहि ठाणेहि पाहारसण्णा समुप्पज्जति, त जहा-प्रोमकोटुताए, छुहावेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवप्रोगेणं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org