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________________ 382] [स्थानाङ्गसूत्र स्पृष्ट-सूत्र ___ ४६३–चउहि अस्थिकाहि लोगे फुडे पण्णत्ते, तं जहा-धम्मत्थिकाएणं, अधम्मत्थिकाएणं, जीवत्यिकाएणं, पुग्गलथिकाएणं / चार अस्तिकायों से यह सर्व लोक स्पृष्ट (व्याप्त) है / जैसे 1. धर्मास्तिकाय से, 2. अधर्मास्तिकाय से, 3. जीवास्तिकाय से और 4. पुद्गलास्तिकाय से / (463) / ४६४-चउहि बादरकाएहि उववज्जमाहिं लोगे फुडे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविकाइएहि, प्राउकाइएहि, वाउकाइएहि, वणस्सइकाइएहिं / निरन्तर उत्पन्न होने वाले चार अपर्याप्तक बादरकायिक जीवों के द्वारा यह सर्वलोक स्पृष्ट कहा गया है। जैसे 1. बादर पृथवीकायिक जीवों से, 2. बादर अप्कायिक जीवों से, 3. बादर वायुकायिक जीवों से, 4. बादर वनस्पतिकायिक जीवों से (464) / विवेचन-इस सूत्र में बादर तेजस्कायिकजीवों का नामोल्लेख नहीं करने का कारण यह है कि वे सर्व लोक में नहीं पाये जाते हैं, किन्तु केवल मनुष्य क्षेत्र में ही उनका सद्भाव पाया जाता है। हां, सूक्ष्मतेजस्कायिक जीव सर्व लोक में व्याप्त पाये जाते हैं, किन्तु 'बादरकाय' इस सूत्र-पठित पद से उनका ग्रहण नहीं होता है। बादर पृथ्वीकायिकादि चारों कायों के जीव निरन्तर मरते रहते हैं, अतः उनको उत्पत्ति भी निरन्तर होती रहती है / तुल्य-प्रदेश-सत्र ४६५---चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पण्णत्ता, तं जहा-धम्मस्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, लोगागासे, एगजीवे / चार अस्तिकाय द्रव्य प्रदेशाग्र (प्रदेशों के परिमाण) की अपेक्षा से तुल्य कहे गये हैं / जैसे१. धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, 3. लोकाकाश, 4. एकजीव / इन चारों के असंख्यात प्रदेश होते हैं और वे बराबर-बराबर हैं (465) / नो सुपश्य-सूत्र ४९६-चउण्हमेगं सरीरं णो सुपस्सं भवइ, तं जहा-पुढविकाइयाणं, पाउकाइयाणं, तेउकाइयाणं, वणस्सइकाइयाणं। चार काय के जीवों का एक शरीर सुपश्य (सहज दृश्य) नहीं होता है। जैसे ---- 1. पृथ्वीकायिक जीवों का, 2. अप-कायिक जीवों का, 3. तेजस-कायिक जीवों का, 4. साधारण वनस्पतिकायिक जीवों का (466) / विवेचन-प्रकृत में 'सुपश्य नहीं' का अर्थ प्रांखों से दिखाई नहीं देता, यह समझना चाहिए, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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