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________________ चतुर्थ स्थान-तृतीय उद्देश] [ 361 (किन्तु समता को धारण करता है), वह धर्म के विनिघात को नहीं प्राप्त होता है (किन्तु धर्म में स्थिर रहता है) / यह उसकी पहली सुखशय्या है। 2. दूसरी सुख-शय्या यह है--कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार त्यागकर अनगारिता में प्रवजित हो, अपने (भिक्षा-) लाभ से संतुष्ट रहता है, दूसरे के लाभ का आस्वाद नहीं करता, इच्छा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता और अभिलाषा नहीं करता है / वह दूसरे के लाभ का आस्वाद नहीं करता हुआ, इच्छा नहीं करता हुया, प्रार्थना नहीं करता हुआ, और अभिलाषा नहीं करता हुआ मन को ऊंचानीचा नहीं करता है / वह धर्म के विनिघात को नहीं प्राप्त होता है। यह उसकी दूसरी सुख-शय्या है। 3. तीसरी सुख-शय्या यह है कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार त्यागकर अनगारिता में प्रवजित होकर देवों के और मनुष्यों के काम-भोगों का आस्वाद नहीं करता, इच्छा नहीं करता, प्रार्थना हा करता अोर आभलाषा नहीं करता है / वह उनका प्रास्वाद नहीं करता हया, इच्छा नहीं करता हुआ, प्रार्थना नहीं करता हुआ और अभिलाषा नहीं करता हुअा मन को ऊंचा-नीचा नहीं करता है। वह धर्म के विनिघात को नहीं प्राप्त होता है। यह उसकी तीसरी सख-शय्या है। 4. चौथी सुखशय्या यह है-कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रवजित हुा / तब उसको ऐसा विचार होता है-जब यदि अर्हन्त भगवन्त हृष्ट-पुष्ट, नीरोग, बलशाली और स्वस्थ शरीर वाले होकर भी कर्मों का क्षय करने के लिए उदार, कल्याण, विपुल, प्रयत, प्रगृहीत, महानुभाय, कर्म-क्षय करने वाले अनेक प्रकार के तपःकर्मों में से अन्यतर तपों को स्वीकार करते हैं, तब मैं आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना को क्यों न सम्यक् प्रकार से सहूं ? क्यों न क्षमा धारण करू ? और क्यों न वीरता-पूर्वक वेदना में स्थिर रह ? यदि में आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना को सम्यक प्रकार से सहन नहीं करूंगा, क्षमा धारण नहीं करूगा और वीरता-पूर्वक वेदना में स्थिर नहीं रहूंगा, तो मुझे क्या होगा? मुझे एकान्त रूप से पाप कर्म होगा? यदि मैं आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना को सम्यक् प्रकार से सहन करूगा, क्षमा धारण करूगा, और वीरता-पूर्वक वेदना में स्थिर रहूंगा, तो मुझे क्या होगा? एकान्त रूप से मेरे कर्मों की निर्जरा होगी। यह उसकी चौथी सुखशय्या है (451) / विवेचन-दुःख-शय्या और सुख-शय्या के सूत्रों में पाये कुछ विशिष्ट पदों का अर्थ इस प्रकार है 1. शंकित-निर्ग्रन्थ-प्रवचन में शंका-शील रहना यह सम्यग्दर्शन का प्रथम दोष है और निःशंकित रहना यह सम्यग्दर्शन का प्रथम गुण है। 2. कांक्षित-निर्ग्रन्थ-प्रवचन को स्वीकार कर फिर किसी भी प्रकार की आकांक्षा करना सम्यक्त्व का दूसरा दोष है और निष्कांक्षित रहना उसका दूसरा गुण है। 3. विचिकित्सित-निर्ग्रन्थ-प्रवचन को स्वीकार कर किसी भी प्रकार की ग्लानि करना सम्यक्त्व का तीसरा दोष है और निविचिकित्सित भाव रखना उसका तीसरा गुण है। 4. भेद-समापन्न होना सम्यक्त्व का अस्थिरता नामक दोष है और अभेदसमापन्न होना यह उसका स्थिरता नामक गुण है। 5. कलुषसमापन्न होना यह सम्यक्त्व का एक विपरीत धारणा रूप दोष है और अकलुष समापन्न रहना यह सम्यक्त्व का गुरण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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