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________________ 360 ] [ स्थानाङ्गसूत्र 4. गात्रोत्क्षालन-वस्त्र से शरीर को रगड़ते हुए जल से स्नान करना / इन की इच्छा करना भी संयम का विघातक है / सुखशय्या-सूत्र 451-- चत्तारि सुहसेज्जाओ पण्णत्ताओं, तं जहा१. तत्थ खलु इमा पढमा सुहसेज्जा-से णं मुडे भविता अगारामो अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे हिस्संकि णिक्कंखिते णिन्वितिगिच्छिए णो भेदसमावणे णो कलुससमावण्णे णिग्गंथं पावयणं सद्दहइ पत्तियइ रोएति, णिग्गंथं पावयणं सहहमाणे पत्तियमाणे रोएमाणे णो मणं उच्चावयं णियच्छति, णो विणिघातमावज्जति-पढमा सुहसेज्जा। 2. अहावरा दोच्चा सुहसेज्जा से णं मुड जाव [भवित्ता अगाराओ अणगारियं] पव्वइए सएणं लाभेणं तुस्सति परस्स लाभं णो आसाएति णो पोहेति णो पत्थेति णो अभिलसति, परस्स लाभमणासाएमाणे जाव [अपोहेमाणे अपत्थेमाणे] अणभिलसमाणे णो मणं उच्चावयं णियच्छति, णो विणिघातमावज्जति-दोच्चा सुहसेज्जा। 3. अहावरा तच्चा सुहसेज्जा--से णं मुडे जाव [भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं] पव्वइए दिवमाणस्सए कामभोगे जो प्रासाएति जाव [णो पीहेति णो पत्थेति] णो अभिलसति, दिव्वमाणुस्सए काम भोगे प्रणासाएमाणे जाब [अपोहेमाण अपत्थेमाणे] अभिलसमाणे णों मणं उच्चावयं णियच्छति, णो विणिघातमावज्जति ---तच्चा सुहसेज्जा / 4. अहावरा चउत्था सुहसेज्जा--से गं मडे जाव [भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं] पव्वइए तस्स णं एवं भवति–जइ ताव अरहंता भगवंतो हट्ठा अरोगा बलिया कल्लसरीरा प्रणयराई पोरालाई कल्लाणाई विउलाई पयताई परगाहताई महाणुभागाई कम्मक्खयकारणाई तवोकम्माई पडिवज्जंति, किमंग पण प्रहं अब्भोवगमिग्रोवक्कमियं वेयणं णो सम्मं सहामि खमामि तितिक्खेमि अहियासेमि ? ममं च णं अब्भोवगमिनोवक्कमियं [वेयणं?] सम्ममसहमाणस्स अक्खममाणस्स अतितिक्खेमाणस्स अणहियासेमाणस्स कि मण्णे कज्जति ? एगंतसो मे पावे कम्मे कज्जति / ममं च णं अभोवगमित्रो जाव (विक्कमियं [वेयणं ? ]) सम्म सहमाणस्स जाव [खममाणस्स तितिक्खमाणस्स] अहियासेमाणस्स कि मण्णे कज्जति ? एगंतसो मे णिज्जरा कज्जति–चउत्था सुहसेज्जा / चार सुख-शय्याएं कही गई हैं 1. उनमें पहली सुख-शय्या यह है—कोई पुरुष मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रवजित हो, निर्ग्रन्थ प्रवचन में निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सित, अभेद-समापन्न, औरअकलुषसमापन्न होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है और रुचि करता है। वह निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता हुमा, प्रतीति करता हुमा, रुचि करता हुना, मन को ऊँचा-नीचा नहीं करता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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