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________________ [ स्थानाङ्गसूत्र चार कारणों से देवों के चैत्यवृक्ष चलायमान होते हैं / जैसे१. 'अर्हन्तों के उत्पन्न होने पर, 2. अर्हन्तों के प्रवजित होने के अवसर पर, 3. अर्हन्तों के केवलज्ञान उत्पन्न होने की महिमा के अवसर पर, 4. अर्हन्तों के परिनिर्वाण कल्याण की महिमा के अवसर पर / इन चार कारणों से देवों के चैत्यवृक्ष चलायमान होते हैं (448) / ४४६--चउहि ठाणेहि लोगंतिया देवा माणुसं लोग हब्धमागच्छेज्जा, तं जहा-अरहतेहि जायमाणेहि, अरहतेहिं पव्वयमाणेहि, प्ररहताणं णाणुप्पायमहिमासु, प्ररहताणं परिणिन्वाणमहिमासु / चार कारणों से लोकान्तिक देव मनुष्यलोक में तत्काल आते हैं / जैसे१. अर्हन्तों के उत्पन्न होने पर, 2. अर्हन्तों के प्रवजित होने के अवसर पर, 3. अर्हन्तों के केवलज्ञान उत्पन्न होने की महिमा के अवसर पर, 4. अर्हन्तों के परिनिर्वाण कल्याण की महिमा के अवसर पर। इन चार कारणों से लोकान्तिक देव मनुष्यलोक में तत्काल आते हैं (446) / दुःखशय्या-सूत्र ४५०-चत्तारि दुहसेज्जाप्रो पण्णत्तानो, तं जहा--- 1. तत्थ खलु इमा पढमा दुहसेज्जा-से णं मुडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं पच्चइए णिग्गंथे पावयणे संकिते कंखिते बितिगिच्छिते मेयसमावण्णे कलुससमावणे णिग्गंथं पावयणं णो सद्दहति णो पत्तियति णो रोएइ, णिग्गंथं पावयणं असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे मणं उच्चावयं णियच्छति, विणिघातमावज्जति---पढमा दुहसेज्जा। 2. प्रहावरा दोच्चा दुहसेज्जा-से णं मुडे भवित्ता अगारामों जाव [अणगारियं] पम्वइए सएणं लाभेणं णो तुस्सति, परस्स लाभमासाएति पीहेति पत्थेति अभिलसति, परस्स लाभमासाएमाणे जाव [पोहेमाणे पत्थेमाणे] अभिलसमाणे मणं उच्चावयं णियच्छइ, विणिघातमावज्जति–दोच्चा दुहसेज्जा। 3. प्रहावरा तच्चा दुहसेज्जा-से णं मुंडे भवित्ता जाव [अगाराप्रो अणगारियं] पन्वइए दिव्वे माणुस्सए कामभोंगे प्रासाइए जाव [पोहेति पत्थेति] अभिलसति, दिव्वे माणुस्सए कामभोगे प्रासाएमाणे जाव पोहेमाणे पत्थेमाणे] अभिलसमाणे मणं उच्चावयं णियच्छति, विणिघातमावज्जति–तच्चा दुहसेज्जा। 4. प्रहावरा चउत्था दुहसेज्जा-से णं मुंडे जाव [भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं] पव्वइए, तस्स णं एवं भवति-जया णं अहमगारवासमावसामि तदा णमहं संवाहण-परिमद्दणगातभंग-गातुच्छोलणाई लभामि, जप्पभिई च णं अहं मुडे जाव [भवित्ता अगारामों प्रणगारियं] पव्वइए तप्पमिइं च णं प्रहं संवाहण जाव [परिमद्दण-गातभंग] गातुच्छो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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