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________________ [311 चतुर्थ स्थान-द्वितीय उद्देश ] समान विस्तार वाले हैं। उनका आकार अन्न भरने के पल्यक (कोठी) के समान गोल है। वे दश हजार योजन विस्तार वाले हैं। उनकी परिधि इकतीस हजार छह सौ तेईस (31623) योजन है / वे सब रत्नमय यावत् रमणीय हैं / उन दधिमुखपर्वतों के ऊपर बहुसम, रमणीय भूमिभाग है / शेष वर्णन जैसा अंजनपर्वतों का कहा गया है उसी प्रकार यावत् आम्रवन तक सम्पूर्ण रूप से जानना चाहिए (340) / / ३४१-तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले अंजणगपवते, तस्स णं चउदिसि चत्तारि गंदामो पुक्खरिणीओ पण्णत्तानो, त जहा-भद्दा, विसाला, कुमुदा, पोंडरीगिणी। तानो गंदाओ पुक्खरिणीप्रो एग जोयणसयसहस्सं, सेसं त चेव जाव दधिमहगपन्यता जाव वणसंडा। उन चार अंजन पर्वतों में जो दक्षिण दिशा वाला अंजन पर्वत है, उसकी चारों दिशाओं में चार नन्दा पुष्करिणियां कही गई हैं / जैसे--- 1. भद्रा, 2. विशाला, 3. कुमुदा, 4. पौंडरीकिणी। वे नन्दा पुष्करिणियां एक लाख योजन विस्तृत हैं। शेष सर्व वर्णन यावत् दधिमुख पर्वत और यावत् वनषण्ड तक पूर्वदिशा के समान जाननी चाहिए (341) / ३४२-तत्थ णं जे से पच्चथिमिल्ले अंजणगपवते, तस्स णं चउदिसि चत्तारि गंदाप्रो पुक्लरिणीओ पण्णताओ, त जहाणंदिसेणा, अमोहा. गोथूभा, सुदंसणा। सेसंत चेव, तहेव दधिमुहगपव्यता, तहेव सिद्धाययणा जाव वणसंडा। उन चार अंजन पर्वतों में जो पश्चिम दिशा वाला अंजन पर्वत है, उसकी चारों दिशाओं में चार नन्दा पुष्करिणियां कही गई हैं। जैसे 1. नन्दिषेणा, 2, अमोघा, 3. गोस्तूपा, 4. सुदर्शना / इनका विस्तार आदि शेष सर्व वर्णन पूर्व दिशा के समान है, उसी प्रकार दधिमुख पर्वत हैं, और तथैव सिद्धायतन यावत् वनषण्ड जानना चाहिए (342) / ३४३--तत्थ णं जे से उत्तरिले अंजणगपवते, तस्स णं चउद्दिसि चत्तारि गंदामो पुक्ख. रिणीओ पण्णत्ताओ, तजहा-विजया, वेजयंती, जयंती, अपराजिता / ताम्रो गं गंदामो पुक्खरिणीम्रो एग जोयणसयसहस्सं सेसंत चेव पमाणं, तहेव दधिमहगपव्वता, तहेव सिद्धाययणा जाव वणसंडा / उन चार अंजन पर्वतों में जो उत्तरदिशा बाला अंजन पर्वत है, उसकी चारों दिशाओं में चार नन्दा पुष्करिणियाँ कही गई हैं। जैसे-- 1. विजया, 2. वैजयन्ती, 3. जयन्ती, 4. अपराजिता / वे नन्दा पुष्करिणियां एक लाख योजन विस्तृत हैं, शेष सर्व पूर्व के समान प्रमाण वाला है। उसी प्रकार के दधिमुख पर्वत हैं, उसी प्रकार के सिद्धायतन यावत् वनषण्ड जानना चाहिए (343) / ___३४४–णंदीसरवरस्स णं दीवस्स चक्कवाल-विक्खंभस्स बहुमज्झदेसभागे चउसु विदिसासु चत्तारि रतिकरगपव्वता पण्णत्ता, त' जहा-उत्तरपुरथिमिल्ले रतिकरगपचए, दाहिणपुरथिमिल्ले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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