________________ चतुर्थ स्थान-द्वितीय उद्देश ] [ 306 उनके बहु-सम रमणीय भूमिभागों के बहुमध्य देश भाग में (बीचोंबीच) चार सिद्धायतन कहे गये हैं। वे सिद्धायतन एक सौ योजन लम्बाई वाले, पचास योजन चौड़ाई वाले और बहत्तर योजन ऊपरी ऊंचाई वाले हैं। उन सिद्धायतनों के चारों दिशाओं में चार द्वार कहे गये हैं / जैसे१. देवद्वार 2. असुरद्वार 3. नागद्वार 4. सुपर्णद्वार / उन द्वारों पर चार प्रकार के देव रहते हैं। जैसे१. देव 2. असुर 3. नाग 4. सुपर्ण / उन द्वारों के आगे चार मुख-मण्डप कह गये हैं। उन मुख-मण्डपों के आगे चार प्रेक्षागृहमण्डप कह गये हैं। उन प्रेक्षागृह मण्डपों के बहुमध्य देश भाग में चार वज्रमय अक्षवाटक (दर्शकों के लिए बैठने के आसन) कहे गये हैं। उन वज्रमय अक्षवाटकों के बहुमध्य देशभाग में चार मणिपीठिकाएं कही गई हैं। उन मणिपोठिकानों के ऊपर चार सिंहासन कहे गये हैं। उन सिंहासनों के ऊपर चार विजयदुष्य (चन्दोवा) कहे गये हैं। उन विजयदूष्यों के बहुमध्य देश भाग में चार बज्रमय अंकुश कहे गये हैं। उन वज्रमय अंकुशों के ऊपर चार कुम्भिक मुक्तामालाएं लटकती हैं। ___ उन कुम्भिक मुक्तामालाओं से प्रत्येक माला पर उनकी ऊंचाई से प्राधी ऊंचाई वाली चार अर्धकुम्भिक मुक्तामालाएं सर्व अोर से लिपटी हुई हैं (336) / विवेचन-संस्कृत टीकाकार ने आगम प्रमाण को उद्धृत करके कुम्भ का प्रमाण इस प्रकार कहा है-दो असती = एक पसती / दो पसती एक सेतिका। दो सेतिका- 1 कुडव / 4 कुडव - एक प्रस्थ / चार प्रस्थ - एक आढक / 4 आढक = 1 द्रोण / 60 आढक - एक जघन्य कुम्भ / 80 आढक = एक मध्यम कुम्भ / 100 पाढक = एक उत्कृष्ट कुम्भ / इस प्राचीन माप के अनुसार 40 मन का एक कुम्भ होता है / इस कुम्भ प्रमाण मोतियों से बनी माला को कुम्भिक मुक्तादाम कहा जाता है / अर्धकुम्भ का प्रमाण 20 मन जानना चाहिए। उन प्रेक्षागृह-मण्डपों के आगे चार मणिपीठिकाएं कही गई हैं। उन मणिपीठिकानों के ऊपर चार चैत्यस्तूप हैं। उन चैत्यस्तूपों में से प्रत्येक-प्रत्येक पर चारों दिशाओं में चार-चार मणिपीठिकाएं हैं। उन मणिपीठिकाओं पर सर्वरत्नमय, पर्यङ्कासन जिन-प्रतिमाएं अवस्थित हैं और उनका मुख स्तूप के सामने है / उनके नाम इस प्रकार हैं 1. ऋषभा, 2. वर्धमाना, 3. चन्द्रानना, 4. वारिषेणा। उन चेत्यस्तूपों के आगे मणिपीठिकाएं हैं / उन मणिपीठिकानों के ऊपर चार चैत्यवृक्ष हैं। उन चैत्यवृक्षों के आगे चार मणिपीठिकाएं हैं। उन मणिपीठिकाओं के ऊपर चार महेन्द्रध्वज हैं। उन महेन्द्रध्वजों के आगे चार नन्दा पुष्करिणियां हैं। उन पुष्करिणियों में से प्रत्येक के आगे चारों दिशाओं में चार वनषण्ड कहे गये हैं। जैसे 1. पूर्ववनषण्ड, 2. दक्षिणवनषण्ड, 3. पश्चिम वनषण्ड, 4. उत्तरवनषण्ड / 1. पूर्व में अशोकवन, 2. दक्षिण में सप्तपर्णवन, 3. पश्चिम में चम्पकवन और 4. उत्तर में आम्रवन कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org