________________ 304] [ स्थानाङ्गसूत्र उन द्वीपों को चारों विदिशाओं में लवण समुद्र के भीतर सात-सात सौ योजन जाने पर चार अन्तर्वीप कहे गये हैं। जैसे-- 1. अश्वकर्ण द्वीप 2. हस्तिकर्ण द्वीप 3. अकर्ण द्वीप 4. कर्णप्रावरण द्वीप / उन द्वीपों पर चार प्रकार के मनुष्य रहते हैं / जैसे१. अश्वकर्ण 2. हस्तिकर्ण 3. अकर्ण 4. कर्णप्रावरण (325) / ३२६-तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणमुई अदृट्ट जोयणसयाई प्रोगाहेत्ता, एत्थ णं चत्तारि अंतरदोवा पग्णत्ता, तं जहा-उक्कामुहदीवे, मेहमुहदीवे, विज्जुमुहदीवे, विज्जुदंतदोवे / तेसु णं दीवेसु चउम्विहा मणुस्सा भाणियन्वा / [परिवसंति, तं जहा--उक्कामुहा, मेहमुहा, विज्जुमुहा, विजुदंता] / उन द्वीपों की चारों विदिशाओं में लवण समुद्र के भीतर आठ-आठ सौ योजना जाने पर चार अन्तर्वीप कहे गये हैं / जैसे 1. उल्कामुख द्वीप 2. मेघमुख द्वीप 3. विद्युन्मुख द्वीप 4. विद्य दन्त द्वीप / उन द्वीपों पर चार प्रकार के मनुष्य रहते हैं / जैसे१. उल्कामुख 2. मेघमुख 3. विद्य न्मुख 4. विद्य द्दन्त (326) / 327 तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुदं णव-णव जोयणसयाइं प्रोगाहेत्ता, एत्थ णं चत्तारि अंतरदीया पण्णत्ता, तं जहा-घणदंतदीवे, लट्ठदंतदोवे, गूढदंतदोवे, सुद्धदंतदोवे / तेसु णं दोवेसु चउव्विहा मणुस्सा परिवसंति, तं जहा-घणदंता, लट्ठदंता, गूढदंता, सुद्धदंता। उन द्वीपों की चारों विदिशाओं में लवण समुद्र के भीतर नौ-नौ सौ योजन जाने पर चार अन्तर्वीप कहे गये हैं। जैसे 1. घनदन्त द्वीप 2. लष्टदन्त द्वीप 3. गूढदन्त द्वीप 4. शुद्धदन्त द्वीप / उन द्वीपों पर चार प्रकार के मनुष्य रहते हैं / जैसे१. घनदन्त 2. लष्टदन्त 3. गूढदन्त 4. शुद्धदन्त (327) / ३२८-जंबडीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं सिहरिस्स वासहरपब्वयस्स चउसु विदिसासु लवणसम तिण्णि-तिष्णि जोयणसयाई प्रोगाहेत्ता, एत्थ णं चत्तारि अंतरदोवा पण्णत्ता, त जहाएगूरुयदीवे, सेसं तहेव गिरवसेसं भाणियन्वं जाव सुद्धदंता। जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में शिखरी वर्षधर पर्वत की चारों विदिशाओं में लवण समुद्र के भीतर तीन-तीन सौ योजन जाने पर चार अन्तर्वीप कहे गये हैं / जैसे 1. एकोरुक द्वीप 2. आभाषिक द्वीप 3. वैषाणिक द्वीप 4. लांगुलिक द्वीप / इस प्रकार जैसे क्षुल्लक हिमवान् वर्षधर पर्वत की चारों विदिशाओं में लवण-समुद्र के भीतर जितने अन्तर्वीप और जितने प्रकार के मनुष्य कहे गये हैं वह सर्व वर्णन यहां पर भी शुद्धदन्त मनुष्य पर्यन्त मन्दर पर्वत के उत्तर में जानना चाहिए (328) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org