SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 302] [स्थानाङ्गसूत्र द्वार-सूत्र ___३२०-जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहा-विजये, वेजयंते, जयंते, अपराजिते / ते णं दारा चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं पण्णत्ता। ___ तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पलिप्रोवमद्वितीया परिवसंति, तं जहा-विजये, वेजयंते, जयंते, अपराजिते। जम्बूद्वीप नामक द्वीप के चार द्वार हैं / जैसे१. विजय द्वार, 2. वैजयन्त द्वार, 3. जयन्त द्वार, 4. अपराजित द्वार / वे द्वार विष्कम्भ (विस्तार) की अपेक्षा चार योजन और प्रवेश (मुख) की अपेक्षा भी चार योजन के कहे गये हैं। उन द्वारों पर पल्योपम की स्थिति वाले यावत् महधिक चार देव रहते हैं / जैसे 1. विजयदेव, 2. वैजयन्तदेव, 2. जयन्तदेव, 4. अपाराजितदेव (320) / अन्तरद्वीप-सूत्र ३२१-जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स चउसु विदिसासु लवणसमझ तिष्णि-तिणि नोयणसयाई प्रोगाहित्ता, एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता, तं जहा–एगूरुयदीवे, प्राभासियदीवे. वेसाणियदीवे गंगोलियदीवे / ___ तेसु णं दीवेसु चउन्विहा मणुस्सा परिवसंति, तं जहा-एगूरुया, आभासिया, वेसाणिया, णंगोलिया। जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में क्षुल्लक हिमवान् वर्षधर पर्वत की चारों विदिशाओं में लवण समुद्र के भीतर तीन-तीन सौ योजन जाने पर चार अन्तर्वीप कहे गये हैं / यथा 1. एकोरुक द्वीप, 2. आभाषिक द्वीप, 3. वैषाणिक द्वीप, 4, लांगुलिक द्वीप / उन द्वीपों पर चार प्रकार के मनुष्य रहते हैं / जैसे१. एकोरुक 2. आभाषिक 3. वैषाणिक 4. लांगुलिक (321) / विवेचन---अन्तीपों में रहने वाले मनुष्यों के जो प्रकार यहां बतलाए गए हैं, उनके विषय में टीकाकार ने लिखा है-'द्वीपनामतः पुरुषाणां नामान्येव ते तु सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरा:, दर्शने मनोरमाः स्वरूपतो, नकोरुकादय एवेति / ' अर्थात् पुरुषों के जो नाम कहे गए हैं वे द्वीपों के नाम से ही हैं / पुरुष तो समस्त अंगों और उपांगों से सुन्दर हैं, देखने में स्वरूप से मनोरम हैं। वे एकोरुक-एक जांघ वाले आदि नहीं है। तात्पर्य यह कि उनके नामों का अर्थ उनमें घटित नहीं होता। मुनि श्री नथमलजी ने 'ठाणं' में जो अर्थ किया है वह टीकाकार के मन्तव्य से विरुद्ध एवं चिन्तनीय है। ___ ३२२-तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुहूं चत्तारि-चत्तारि जोयणसयाई ओगाहेत्ता, एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता, तं जहा हयकपणदीवे, गयकण्णदीवे, गोकण्णदीवे, सक्कुलि. कष्णदोवे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy