________________ चतुर्थ स्थान - द्वितीय उद्देश ] [ 286 पुनः तमस्काय के चार नाम कहे गये हैं, जैसे१. लोकान्धकार, 2. लोकतम, 3. देवान्धकार, 4. देवतम (276) / २७७-तमक्कायस्स णं चत्तारि णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-वातफलिहेति वा, वातफलिहखोभेति वा, देवरण्णेति बा, देववाहेति वा। पुनः तमस्काय के चार नाम कहे गये हैं, जैसे१. वातपरिघ, 2. वातपरिघक्षोभ, 3. देवारण्य, 4. देवन्यूह (277) / विवेचन-उक्त तीनों सूत्रों में जिस तमस्काय का निरूपण किया गया है वह जलकाय के परिणमन-जनित अन्धकार का एक प्रचयविशेष है। इस जम्बूद्वीप से आगे असंख्यात द्वीप-समुद्र जाकर अरुणवर द्वीप आता है। उसकी बाहरी वेदिका के अन्त में अरुणवर समुद्र है। उसके भीतर 42 हजार योजन जाने पर एक प्रदेश विस्तृत गोलाकार अन्धकार की एक श्रेणी ऊपर की ओर उठती है जो 1721 योजन ऊंची जाने के बाद तिर्यक् विस्तृत होती हुई सौधर्म आदि चारों देवलोकों को घेर कर पांचवें ब्रह्मलोक के रिष्ट विमान तक चली गई है। यतः उसके पुद्गल कृष्णवर्ण के हैं, अत: उसे तमस्काय कहा जाता है। प्रथम सूत्र में उसके चार नाम सामान्य अन्धकार के और दूसरे सूत्र में उसके चार नाम महान्धकार के वाचक हैं। लोक में इसके समान अत्यन्त काला कोई दूसरा अन्धकार नहीं है, इसलिए उसे लोकतम और लोकान्धकार कहते है। देवों के शरीर की प्रभा भी वहां हतप्रभ हो जाती है, अतः उसे देवतम और देवान्धकार कहते हैं। वात (पवन) भी उसमें प्रवेश नहीं पा सकता, अत: उसे वात-परिध और वातपरिधक्षोभ कहते हैं / देवों के लिए भी वह दुर्गम है, अतः उसे देवारण्य और देवव्यूह कहा जाता है। २७८-तमक्काए णं चत्तारि कप्पे प्रावरित्ता चिट्ठति, तं जहा-सोधम्मोसाणं सणंकुमारमाहिदं। तमस्काय चार कल्पों को घेर करके अवस्थित है / जैसे 1. सौधर्मकल्प, 2. ईशानकल्प, 3 सनत्कुमार कल्प 4. माहेन्द्रकल्प (278) / दोष-प्रतिवि-सूत्र २७६-~~चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-संपागडपडिसेवी णाममे गे, पच्छण्णपडिसेवी णामम गे, पडुप्पण्णणंदी णामम गे, णिस्सरणणंदो जाममगे। चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं / जैसे 1. सम्प्रकटप्रतिसेवी--कोई पुरुष प्रकट में (अगीतार्थ के समक्ष अथवा जान-बूझकर दर्प से) दोष सेवन करता है। 2. प्रच्छन्नप्रतिसेवी---कोई पुरुष छिपकर दोष सेवन करता है। 3. प्रत्युत्पवासिन्दी-कोई पुरुष यथालब्ध का सेवन करके प्रानन्दानुभव करता है / 4. निःसरणानन्दी-कोई पुरुष दूसरों के चले जाने पर (गच्छ आदि से अभ्यागत साधु या शिष्य आदि के निकल जाने पर) प्रसन्न होता है (276) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org