________________ 280 ] [ स्थानाङ्गसूत्र २५७-णो कम्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा चहि संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहापढमाए, पच्छिमाए, मज्झण्हे, अड्रत्ते। निर्गन्थ और निर्गन्थियों को चार सन्ध्याओं में स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है, जैसे१. प्रथम सन्ध्या-सूर्योदय का पूर्वकाल / 2. पश्चिम सन्ध्या-सूर्यास्त के पीछे का काल / 3. मध्याह्न सन्ध्या-दिन के मध्य समय का काल / 4. अर्धरात्र सन्ध्या -आधी रात का समय (257) / विवेचन-- दिन और रात के सन्धि-काल को सन्ध्या कहते हैं / इसी प्रकार दिन और रात्रि के मध्य भाग को भी सन्ध्या कहा जाता है, क्योंकि वह पूर्वभाग और पश्चिम भाग (पूर्वाह्न और अपराह) का सन्धिकाल है। इन सन्ध्याओं में स्वाध्याय के निषेध का कारण यह बताया गया है कि ये चारों सन्ध्याएं ध्यान का समय मानी गई हैं। स्वाध्याय से ध्यान का स्थान ऊंचा है, अतः ध्यान के समय में ध्यान ही करना उचित है / २५८–कस्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गयोण वा चउक्ककालं सज्झायं फरेत्तए, तं जहापुवण्हे, प्रवरण्हे, परोसे, पच्चूसे / निर्ग्रन्थ और निम्र न्थियों को चार कालों में स्वाध्याय करना कल्पता है, जैसे१. पूर्वाह्न में-दिन के प्रथम पहर में। 2. अपराह्म में दिन के अन्तिम पहर में। 3. प्रदोष में-रात के प्रथम पहर में / 4. प्रत्यूष' में रात के अन्तिम पहर में (258) / लोकस्थिति-सूत्र २५६–चउम्विहा लोगट्टिती पण्णत्ता, तं जहा—आगासपतिढ़िए वाते, वातपतिट्ठिए उदधी, उदधिपतिट्ठिया पुढवी, पुढविपतिट्टिया तसा थावरा पाणा। लोकस्थिति चार प्रकार की कही गई है, जैसे-- 1. वायु (तनुवात-धनवात) अाकाश पर प्रतिष्ठित है। 2. घनोदधि वायु पर प्रतिष्ठित है। 3. पृथिवी घनोदधि पर प्रतिष्ठित है। 4. अस और स्थावर जीव पृथिवी पर प्रतिष्ठित हैं (256) / पुरुष-भव-सूत्र २६०–चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा--तहे णाममेगे, णोतहे णाममेगे, सोवस्थी णाममेग, पधाणे गाममेग। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org