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________________ चतुर्थ स्थान-द्वितीय उद्देश [276 ___ इच्चेतेहिं चहि ठार्गाह णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा जाव [अस्सि समयसि ?] अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पज्जिउकामे) समुप्पज्जेज्जा। चार कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को अभीष्ट अतिशय-युक्त ज्ञान दर्शन तत्काल उत्पन्न होते हैं, जैसे 1. जो स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा और राजकथा को नहीं कहता। 2. जो विवेक और व्युत्सर्ग के द्वारा आत्मा की सम्यक् प्रकार से भावना करता है। 3. जो पूर्वरात्रि और अपर रात्रि के समय धर्म ध्यान करता हुआ जागृत रहता है। 4. जो प्रासुक, एषणीय, उञ्छ और सामुदानिक भिक्षा की सम्यक् प्रकारसे गवेषणा करता है (255) / इन चार कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के अभीष्ट, अतिशय-युक्त ज्ञान-दर्शन तत्काल उत्पन्न हो जाते हैं। स्वाध्याय-सूत्र २५६–णो कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा चहिं महापाडिवएहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा–प्रासाढपाडिवए, इंदमहपाडिवए, कत्तियपाडिवए, सुगिम्हगपाडिवए। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को चार महाप्रतिपदाओं में स्वध्याय करना नहीं कल्पता है, जैसे१. आषाढ़-प्रतिपदा-आषाढ़ी पूर्णिमा के पश्चात् आने वाली सावन की प्रतिपदा / 2. इन्द्रमह-प्रतिपदा-आसौज मास की पूर्णिमा के पश्चात् आने वाली कार्तिक की प्रतिपदा। 3. कार्तिक-प्रतिपदा-कार्तिकी पूर्णिमा के पश्चात् आने वाली मगसिर की प्रतिपदा / 4. सुग्रीष्म-प्रतिपदा-चैत्री पूर्णिमा के पश्चात् आने वाली वैशाख की प्रतिपदा (256) / विवेचन-किसी महोत्सव के पश्चात् पाने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहा जाता है। भगवान् महावीर के समय इन्द्रमह, स्कन्दमह, यक्षमह और भूतमह ये चार महोत्सव जन-साधारण में प्रचलित थे। निशीथभाष्य के अनुसार आषाढ़ी पूर्णिमा को इन्द्रमह, आश्विनी पूर्णिमा को स्कन्दमह, कार्तिकी पूर्णिमा को यक्षमह और चैत्री पूर्णिमा को भूतमह मनाया जाता था। इन उत्सवों में सम्मिलित होने वाले लोग मदिरा-पान करके नाचते-कूदते हुए अपनी परम्परा के अनुसार इन्द्रादि की पूजनादि करते थे। उत्सव के दूसरे दिन प्रतिपदा को अपने मित्रादिकों को बुलाते और मदिरापान पूर्वक भोजनादि करते-कराते थे। इन महाप्रतिपदामों के दिन स्वाध्याय-निषेध के अनेक कारणों में से एक प्रधान कारण यह बताया गया है कि महोत्सव में सम्मिलित लोग समीपवर्ती साधु और साध्वियों को स्वाध्याय करते अर्थात् जोर-जोर से शास्त्र-वाचनादि करते हुए देखकर भड़क सकते हैं और मदिरा-पान से उन्मत्त होने के कारण उपद्रव भी कर सकते हैं। अतः यही श्रेष्ठ है कि उस दिन साधु-साध्वी मौनपूर्वक ही अपने धर्म-कार्यों को सम्पन्न करें। दूसरा कारण यह भी बताया गया है कि जहां समीप में जनसाधारण का जोर-जोर से शोर-गुल हो रहा हो, वहां पर साधु-साध्वी एकाग्रतापूर्वक शास्त्र की शब्द या अर्थवाचना को ग्रहण भी नहीं कर सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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