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________________ द्वितीय स्थान-चतुर्थ उद्देश ]] [ 275 248 --विक्खेवणी कहा चउविवहा पण्णत्ता, त जहा—ससमयं कहेइ, ससमयं कहित्ता परसमयं कहेइ, परसमयं कहेत्ता ससमयं ठावइता भवति, सम्मावायं कहेइ, सम्मावायं कहेत्ता मिच्छावायं कहेइ, मिच्छावायं कहेत्ता सम्मावायं ठावइता भवति / विक्षेपणी कथा चार प्रकार की कही गई है, जैसे--- 1. पहले स्व-समय को कहना, पुनः स्वसमय कहकर पर-समय को कहना। 2. पहले पर-समय को कहना, पुनः स्वसमय को कहकर उसकी स्थापना करना / 3. घुणाक्षरन्याय से जिनमत के सदृश पर-समय-गत सम्यक् तत्त्वों का कथन कर पुनः उनके मिथ्या तत्त्वों का कहना। अथवा-आस्तिकवाद का निरूपण कर नास्तिकवाद का निरूपण करना / 4. पर-समय-गत मिथ्या तत्त्वों का कथन कर सम्यक् तत्त्व का निरूपण करना / __ अथवा नास्तिकवाद का निराकरण कर आस्तिकवाद की स्थापना करना (248) / २४६--संवेयणी कहा चउम्विहा पण्णत्ता, त जहा-इहलोगसंवेयणी, परलोगसंवेयणी, आतसरीरसंवेयणी, परसरीरसंवेयणी। संवेजनी या संवेगनी कथा चार प्रकार की कही गई है, जैसे१. इहलोकसंवेजनी कथा-इस लोक-सम्बन्धी असारता का निरूपण करना / 2. परलोकसंवेजनी कथा-परलोक-सम्बन्धो असारता का निरूपण करना / 3. प्रात्मशरीरसंवेजनी कथा-अपने शरीर की अशुचिता का निरूपण करना / 4. परशरीरसंवेदनी कथा-दूसरों के शरीरों की अशुचिता का निरूपण करना (246) / २५०-णिब्वेदणी कहा चउन्विहा पण्णता, त जहा१. इहलोग दुच्चिण्णा कम्मा इहलोग दुहफलविवागसंजुत्ता भवति / 2. इहलोग दुच्चिण्णा कम्मा परलोग दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति / 3. परलोग दुच्चिण्णा कम्मा इहलोग दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति / 4. परलोग दुच्चिण्णा कम्मा परलोग दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति / 1. इहलोग सुचिण्णा कम्मा इहलोग सुहफल विवागसंजुत्ता भवंति / 2. इहलोग सुचिण्णा कम्मा परलोग सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति / 3. [परलोग सुचिण्णा कम्मा इहलोग सुहफलविवागसंजुत्ता भवति / 4. परलोग सुचिण्णा कम्मा परलोग सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति] / निवेदनी कथा चार प्रकार की कही गई है, जैसे१. इस लोक के दुश्चीर्ण कर्म परलोक में दुःखमय फल को देने वाले होते हैं। 2. इस लोक के दुश्चीर्ण कर्म परलोक में दुःखमय फल को देने वाले होते हैं। 3, परलोक के दुश्चीर्ण कर्म इस लोक में दुःखमय फल को देने वाले होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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