________________ 228 ] [ स्थानाङ्गसूत्र 3. तदुभय-प्रतिष्ठित-स्व और पर के निमित्त से उत्पन्न उभय-विषयक क्रोध / 4. अप्रतिष्ठित-बाह्य निमित्त के विना क्रोध कषाय के उदय से उत्पन्न होने वाला क्रोध, जो जीवप्रतिष्ठित होकर भी आत्मप्रतिष्ठित आदि न होने से अप्रतिष्ठित कहलाता है / इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिकों तक के सभी दण्डकों में जानना चाहिए / ७७-[चउपतिट्टिते माणे पण्णत्ते, तं जहा—प्रातपतिहिते, परपतिट्टिते, तदुभयपतिहिते, अपतिट्टिते / एवं-रइयाणं जाव वेमाणियाणं। मानकषाय चतुःप्रतिष्ठित कहा गया है / जैसे१. आत्मप्रतिष्ठित, 2. परप्रतिष्ठित, 3. तदुभयप्रतिष्ठित और 4. अप्रतिष्ठित / यह चारों प्रकार का मान नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में होता है / ७८-चउपतिहिता माया पण्णत्ता, त जहा-पातपतिट्टिता, परपतिहिता, तदुभयपतिट्टिता, अपतिद्विता / एवं-णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं / मायाकषाय चतुःप्रतिष्ठित कहा गया है / जैसे१. प्रात्मप्रतिष्ठित, 2. परप्रतिष्ठित, 3. तदुभयप्रतिष्ठित और 4. अप्रतिष्ठित / यह चारों प्रकार की माया नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में होती हैं। ७९-चउपतिट्टिते लोभे पण्णत्ते, तं जहा-प्रातपतिट्टिते, परपतिट्टिते, तदुभयपतिट्टिते, अपतिद्विते / एवं–णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं] / लोभकषाय चतुःप्रतिष्ठित कहा गया है / जैसे१. आत्मप्रतिष्ठित 2. परप्रतिष्ठित, 3. तदुभयप्रतिष्ठित और 4. अप्रतिष्ठित / यह चारों प्रकार का लोभ नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में होता है। ८०-चहि ठाणेहं कोधप्पत्ती सिता, तं जहा-खेतं पडुच्चा, वत्थु पडुच्चा, सरीरं पडुच्चा, उहि पडुच्चा / एवं-णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं / चार कारणों से क्रोध की उत्पत्ति होती है / जैसे१. क्षेत्र (खेत-भूमि) के कारण 2. वास्तु (घर आदि) के कारण, 3. शरीर (कुरूप आदि होने) के कारण, 4. उपधि (उपकरणादि) के कारण / नारकों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों में उक्त चार कारणों से क्रोध की उत्पत्ति होती है। ८१-[चहि ठाणेहि माणुप्पत्ती सिता, तं जहा–खेत्तं पडुच्चा, वत्थु पडुच्चा, सरीरं पडुच्चा, उवहिं पडुच्चा / एवं–णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org