________________ [ 227 चतुर्थ स्थान-प्रथम उद्देश ] 3. अशुभानुप्रक्षा-संसार, देह और भोगों को अशुभता का विचार करना / 4. अपायातुप्रेक्षा-राग द्वष से होने वाले दोषों का विचार करना (72) / देव-स्थिति-सूत्र ७३-चउविवहा देवाण ठिती पण्णत्ता, तजहा--देवे णाममेगे, देवक्षिणाते णाममेगे, देवपुरोहिते णाममेगे, देवपज्जलणे णाममेंगे। देवों की स्थिति (पद-मर्यादा) चार प्रकार की कही गई है / जैसे१. देव-सामान्य देव / 2. देव-स्नातक-प्रधान देव / अथवा मंत्री-स्थानीय देव / ' 3. देव-पुरोहित शान्तिकर्म करने वाले पुरोहित स्थानीय देव / 4. देव-प्रज्वलन-मंगल-पाठक चारण-स्थानीय मागध देव (73) / संवास-सूत्र ७४–चउविहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा--देवे णाममेगे देवीए सद्धि संवासं गच्छेज्जा, देवे णाममेगे छवीए सद्धि संवासं गच्छेज्जा, छवी णाममेगे देवीए सद्धि संवासं गच्छेज्जा, छवी णाममेगे छवीए सद्धि संवासं गच्छेज्जा। संवास चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. कोई देव देवी के साथ संवास (सम्भोग) करता है। 2. कोई देव छवि (औदारिक शरीरी मनुष्यनी या नियंचनी) के साथ संवास करता है। 3. कोई छवि (मनुष्य या तिर्यंच) देवी के साथ संवास करता है। 4. कोई छवि (मनुष्य या तिर्यंच) छवी (मनुष्यनी या तिर्यचनी) के साथ संवास करता है / कषाय-सूत्र ७५--चत्तारि कसाया पण्णत्ता, त जहा--कोहक साए, माणकसाए, मायाकसाए, लोभकसाए / एवं—णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं / कषाय चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. क्रोधकषाय, 2. मानकषाय, 3. मायाकषाय और 4. लोभकषाय / नारकों से लेकर वैमानिकों तक के सभी दण्डकों में ये चारों कषाय होते हैं। ७६-चउ-पतिट्टिते कोहे पण्णते, त जहा-पात-पतिट्टिते, पर-पतिहिते, तदुभय-पतिट्टिते, अपतिट्टिते / एवं—णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं / क्रोधकषाय चतुःप्रतिष्ठित कहा गया है / जैसे१. आत्म-प्रतिष्ठित-अपने ही दोष से संकट उत्पन्न होने पर अपने ही ऊपर क्रोध होना। 2. पर-प्रतिष्ठित–पर के निमित्त से उत्पन्न अथवा पर-विषयक क्रोध / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org