________________ 202] [ स्थानाङ्गसूत्र इस प्रकार का पुरुष दीर्घ-कालिक साधु-पर्याय के द्वारा सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और सर्व द:खों का अन्त करता है। जैसे कि चातरन्त चक्रवर्ती भरत राजा हुा / यह प्रथम अन्तक्रिया है। 2. दूसरी अन्तक्रिया इस प्रकार है-कोई पुरुष बहुत-भारी कर्मों के साथ मनुष्य-भव को प्राप्त हुआ / पुन: वह मुण्डित होकर, घर त्याग कर, अनगारिता को धारण कर प्रवजित हो, संयमबहुल, संवर-बहुल और (समाधि-बहुल होकर रूक्ष भोजन करता हुअा तीर का अर्थी) उपधान करने वाला, दुःख को खपाने वाला तपस्वी होता है। उसके विशेष प्रकार का घोर तप होता है और विशेष प्रकार की घोर वेदना होती है। इस प्रकार का पुरुष अल्पकालिक साधु-पर्याय के द्वारा सिद्ध होता है, (बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और सर्व दुःखों का) अन्त करता है। जैसे कि गजसुकुमाल अनगार / यह दूसरी अन्तक्रिया है। ___3. तीसरी अन्तक्रिया इस प्रकार है-कोई पुरुष बहुत कर्मों के साथ मनुष्य-भव को प्राप्त हुआ। पुनः वह मुण्डित होकर. घर त्याग कर, अनगारिता को धारण कर प्रवजित हो (संयमबहल, संवर-बहुल और समाधि-बहुल होकर रूक्ष भोजत करता हुआ तीर का अर्थी) उपधान करने वाला, दुःख को खपाने वाला तपस्वी होता है। उसके उस प्रकार का घोर तप होता है, और उस प्रकार की घोर वेदना होती है। इस प्रकार का पुरुष दीर्घ-कालिक साधु-पर्याय के द्वारा सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है] और सर्व दुःखों का अन्त करता है। जैसे कि चातुरन्त चक्रवर्ती सनत्कुमार राजा। यह तीसरी अन्तक्रिया है। 4. चौथी अन्तक्रिया इस प्रकार है--कोई पुरुष अल्प कर्मों के साथ मनुष्य-भवको प्राप्त हुआ / पुनः वह मुण्डित होकर [घर त्याग कर, अनगारिता को धारण कर] प्रवजित हो संयमबहुल, (संवर-बहुल, और समाधि-बहुल होकर रूक्ष भोजन करता हुप्रा) तीर का अर्थी, उपधान करने वाला, दुःख को खपाने वाला] तपस्वी होता है / उसके न उस प्रकार का घोर तप होता है और न उस प्रकार की घोर वेदना होती है। इस प्रकार का पुरुष अल्पकालिक साधु-पर्याय के द्वारा सिद्ध होता है, [बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है] और सर्व दुखों का अन्त करता है। जैसे कि भगवती मरुदेवी / यह चौथी अन्तक्रिया है (1) / विवेचन-जन्म-मरण की परम्परा का अन्त करने वाली और सर्व कर्मों का क्षय करने वाली योग-निरोध क्रिया को अन्तक्रिया कहते हैं। उपर्युक्त चारों क्रियाओं में पहली अन्तक्रिया अल्पकर्म के साथ आये तथा दीर्घकाल तक साधु-पर्याय पालने वाले पुरुष की कही गई है। दूसरी अन्तक्रिया भारी कर्मों के साथ आये तथा अल्पकाल साधु-पर्याय पालने वाले व्यक्ति की कही गई है। तीसरी अन्तक्रिया गुरुतर कर्मों को साथ आये और दीर्घकाल तक साधु-पर्याय पालने वाले पुरुष की कही गई है। चौथी अन्तक्रिया अल्पकर्म के साथ आये और अल्पकाल साधु-पर्याय पालने वाले व्यक्ति की कही गई है। जितने भी व्यक्ति आज तक कर्म-मुक्त होकर सिद्ध बुद्ध हुए हैं, और आगे होंगे, वे सब उक्त चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org