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________________ चतुर्थ स्थान सार : संक्षेप प्रस्तुत चतुर्थ स्थान में चार की संख्या से सम्बन्ध रखने वाले अनेक प्रकार के विषय संकलित हैं। यद्यपि इस स्थान में सैद्धान्तिक, भौगोलिक और प्राकृतिक आदि अनेक विषयों के चार-चार प्रकार वणित हैं, तथापि सबसे अधिक वृक्ष, फल, वस्त्र, गज, अश्व, मेघ आदि के माध्यम से पुरुषों की मनोवृत्तियों का बहुत सूक्ष्म वर्णन किया गया है / ___ जीवन के अन्त में की जाने वाली क्रिया को अन्तक्रिया कहते हैं। उसके चार प्रकारों का सर्वप्रथम वर्णन करते हुए प्रथम अन्तक्रिया में भरत चक्री का, द्वितीय अन्तक्रिया में गजसुकुमाल का, तीसरी में सनत्कुमार चक्री का और चौथी में मरुदेवी का दृष्टान्त दिया गया है। उन्नत-प्रणत वृक्ष के माध्यम से पुरुष की उन्नत-प्रणतदशा का वर्णन करते हुए उन्नत-प्रगतरूप, उन्नत-प्रणतमन, उन्नत-प्रणत-संकल्प, उन्नत-प्रणत-प्रज्ञ, उन्नत-प्रणत दृष्टि, उन्नत-प्रणत-शीलाचार, उन्नत-प्रणत व्यवहार और उन्नत-प्रगत पराक्रम की चतुर्भगियों के द्वारा पुरुष की मनोवृत्ति के उतारचढ़ाव का चित्रण किया गया है, उसी प्रकार उतनी ही चतुभंगियों के द्वारा जाति, कुल पद, दीनअदीन पद आदि का भी वर्णन किया गया है। विकथा और कथापद में उनके अनेक प्रकारों का, कषाय-पद में अनन्तानुबन्धी आदि चारों प्रकार की कषायों का सदृष्टान्त वर्णन कर उनमें वर्तमान जीवों के दुर्गति-सुगतिगमन का वर्णन बड़ा उद्बोधक है। भौगोलिक वर्णन में जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और पुष्करवरद्वीप का, उनके क्षेत्र-पर्वत, आदि का वर्णन है। नन्दीश्वरद्वीप का विस्तृत वर्णन तो चित्त को चमत्कृत करने वाला है। इसी प्रकार आर्य-अनार्य और म्लेच्छ पुरुषों का तथा अन्तर्वीपज मनुष्यों का वर्णन भी अपूर्व है। सैद्धान्तिक वर्णन में महाकर्म-अल्पकर्म वाले निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी एवं श्रमणोपासक-श्रमणोपासिका का, ध्यान-यद में चारों ध्यानों के भेद-प्रभेदों का, और गति-आगति-पद में जीवों के गतिआगति का वर्णन जानने योग्य है। साधुओं की दुःखशय्या और सुखशय्या के चार-चार प्रकार उनके लिए बड़े उद्बोधनीय हैं। प्राचार्य और अन्तेवासी के प्रकार भी उनकी मनोवृत्तियों के परिचायक हैं। ध्यान के चारों भेदों तथा उनके प्रभेदों का वर्णन दुानों को त्यागने और सद्-ध्यानों को ध्याने की प्रेरणा देता है। __अधनोपपन्न देवों और नारकों का वर्णन मनोवृत्ति और परिस्थिति का परिचायक है। अन्धकार उद्योतादि पद धर्म-अधर्म की महिमा के द्योतक हैं। इसके अतिरिक्त तण-वनस्पति-पद, संवास-पद, कर्म-पद, अस्तिकाय-पद स्वाध्याय-पद, प्रायश्चित्त-पद, काल, पुद्गल, सत्कर्म, प्रतिषेवि-पद आदि भी जैन-सिद्धान्त के विविध विषयों का ज्ञान कराते हैं। यदि संक्षेप में कहा जाय तो यह स्थानक ज्ञान-सम्पदा का विशाल भण्डार है। on Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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