SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 176] [ स्थानाङ्गसूत्र [ज्ञान-अनाचार, दर्शन-अनाचार और चारित्र-अनाचार इन तीनों प्रकारों के अनाचारों की आलोचना करनी चाहिए, प्रतिक्रमण करना चाहिए, निन्दा करनी चाहिए. गर्दा करनी चाहिए, व्यावर्तन करना चाहिए, विशोधि करनी चाहिए, पुनः वैसा नहीं करने का संकल्प करना चाहिए / तथा यथोचित प्रायश्चित्त एवं तपःकर्म स्वीकार करना चाहिए (447) / ] प्रायश्चित्त-सूत्र ४४८-तिविधे पायच्छित्ते पण्णत्ते, त जहा—आलोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे / प्रायश्चित्त तीन प्रकार का कहा गया है–पालोचना के योग्य, प्रतिक्रमण के योग्य और तदुभय (आलोचना और प्रतिक्रमण) के योग्य (448) / / विवेचन-जिसके करने से उपार्जित पाप का छेदन हो, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। उसके आगम में यद्यपि दश भेद बतलाये गये हैं, तथापि यहां पर त्रिस्थानक के अनुरोध से आदि के तीन ही प्रायश्चित्तों का प्रस्तुत सूत्र में निर्देश किया गया है / गुरु के सम्मुख अपने भिक्षाचर्या आदि में लगे दोषों के निवेदन करने को आलोचना कहते हैं। मैंने जो दोष किये हैं वे मिथ्या हों, इस प्रकार 'मिच्छा मि दक्कड' करने को प्रतिक्रमण कहते हैं / आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों के तदभय कहते हैं। जो भिक्षादि-जनित साधारण दोष होते हैं, उनकी शूद्धि केवल पालोचना से हो जाती है। जो सहसा अनाभोग से दुष्कृत हो जाते हैं, उनकी शुद्धि प्रतिक्रमण से होती है और जो राग-द्वषादि-जनित दोष होते हैं, उनकी शुद्धि पालोचना और प्रतिक्रमण दोनों के करने से होती है। अकर्मभूमि-सूत्र ४४६--जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं तम्रो प्रकम्मभूमीओ पण्णत्तानो, त जहा-हेमवते, हरिवासे, देवकुरा। जम्बूद्वीपनामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण भाग में तीन अकर्मभूमियाँ कही गई हैंहैमवत, हरिवर्ष और देवकुरु (446) / ४५०-जंबुद्दोवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे ण तओ अकम्मभूमीग्रो पण्णत्तानो, त जहाउत्तरकुरा, रम्मगवासे, हेरण्णवए / जम्बद्वीपनामक द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर भाग में तीन अकर्मभूमियां कही गई हैं-उत्तर कुरु, रम्यकवर्ष और हैरण्यवत (450) / थर्ष-(क्षेत्र)-सूत्र ४५१---जंबट्टीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं तो वासा पण्णत्ता, संजहा--मरहे, हेमवए, हरिवासे। ___ जम्बूद्वीपनामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण भाग में तीन वर्ष (क्षेत्र) कहे गये हैं--भरत, हैमवत और हरिवर्ष (451) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy