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________________ तृतीय स्थान–चतुर्थ उद्देश ] [ 175 विवेचन–ज्ञान, दर्शन और चारित्र के आठ-आठ अंग या आचार कहे गये हैं। उनके प्रतिकूल आचरण करने का मन में विचार प्राना अतिक्रम कहा जाता है। इसके पश्चात् प्रतिकूल आचरण का प्रयास करना व्यतिक्रम कहलाता है / इससे भी आगे बढ़कर प्रतिकूल आंशिक आचरण करना अतिचार है और पूर्ण रूप से प्रतिकूल प्राचरण करने को अनाचार कहते हैं / '. 444 –तिहमतिकमाण–पालोएज्जा, पडिक्कमेज्जा, णिदेज्जा, गरहेज्जा, [विउज्जा, विसोहेज्जा, प्रकरणयाए अब्भुट्ठज्जा, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं] पडिवज्ज्जेजा, त जहाणाणातिक्कमस्स, सणातिक्कमस्स, चरित्तातिक्कमस्स। ज्ञानातिक्रम, दर्शनातिक्रम और चारित्रातिक्रम इन तीनों प्रकारों के अतिक्रमों की आलोचना करनी चाहिए, प्रतिक्रमण करना चाहिए, निन्दा करनी चाहिए, गर्दी करनी चाहिए, (व्यावर्तन करना चाहिए, विशोधि करनी चाहिए, पुनः वैसा नहीं करने का संकल्प करना चाहिए / तथा सेवन किये हुए अतिक्रम दोषों की निवृत्ति के लिए यथोचित प्रायश्चित्त एवं तपःकर्म) स्वीकार करना चाहिए (444) / ४४५-[तिण्हं वइक्कमाणं--आलोएज्जा, पडिक्कमेज्जा, णिदेज्जा, गरहेज्जा, विउज्जा, विसोहेज्जा, अकरणयाए प्रभुट्ठज्जा, - अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जेज्जा, तं जहाणाणवइक्कमस्स, सणवइक्कमस्स, चरित्तवइक्कमस्स / [ज्ञान-व्यतिक्रम-दर्शन-व्यतिक्रम, और चारित्र-व्यतिक्रम इन तीनों प्रकारों के व्यतिक्रमों की आलोचना करनी चाहिए, प्रतिक्रमण करना चाहिए, निन्दा करनी चाहिए, गर्दा करनी चाहिए, व्यावर्तन करना चाहिए, विशोधि करनी चाहिए, पुनः वैसा न करने का संकल्प करना चाहिए। तथा यथोचित प्रायश्चित्त एवं तपःकर्म स्वीकार करना चाहिए (445) / ] ४४६--तिहमतिचाराणं-पालोएज्जा, पडिक्कमेज्जा, णिदेज्जा, गरहेज्जा, विउज्जा, विसोहेज्जा, अरकणयाए अब्भुट्ठज्जा, प्रहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जेज्जा, त जहाणाणातिचारस्स, सणातिचारस्स, चरित्तातिचारस्म / [ज्ञानातिचार, दर्शनातिचार और चारित्रातिचार इन तीनों प्रकारों के अतिचारों की आलोचना करनी चाहिए, प्रतिक्रमण करना चाहिए, निन्दा करनी चाहिए, गीं करनी चाहिए, व्यावर्तन करना चाहिए, विशोधि करनी चाहिए, पुन: वैसा नहीं करने का संकल्प करना चाहिए। तथा यथोचित प्रायश्चित्त एवं तपःकर्म स्वीकार करना चाहिए (446) / ] ४४७--तिण्हमणायाराण–पालोएज्जा, पडिक्कमज्जा, णिदेज्जा, गरहेज्जा, बिउट्टज्जा, विसोहेज्जा, प्रकरणयाए अन्भुट्ठज्जा, प्रहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जेज्जा, त जहाणाणअणायारस्स, सण-प्रणायारस्स, चरित्त-अणायारस्स] / 1. क्षति मनःशुद्धिविधेरतिक्रमं व्यतिक्रम शीलवते विलंघनम् / प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् / / अमितगति-द्वात्रिशिका श्लोक 9 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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