________________ तृतीय स्थान-चतुर्थ उद्देश] [ 173 ज्ञानादि-प्रज्ञापना-सम्यक्-सूत्र ४३०-तिविहा पण्णवणा पण्णत्ता, तं जहाणाणपण्णवणा, दंसणपण्णवणा, चरित्तपण्णवणा। __ प्रज्ञापना तीन प्रकार की कही गई है-ज्ञान की प्रज्ञापना (भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा) दर्शन की प्रज्ञापना और चारित्र की प्रज्ञापना (430) / ४३१-तिविधे सम्मे पण्णत्ते, तं जहा–णाणसम्मे, दंसणसम्मे, चरित्तसम्मे। सम्यक् (मोक्षप्राप्ति के अनुकूल) तीन प्रकार का कहा गया है-ज्ञान-सम्यक्, दर्शन-सम्यक् और चारित्र-सम्यक् (431) / विशोधि-सूत्र ४३२--तिविधे उवधाते पण्णत्ते, तं जहा --उग्गमोवधाते, उप्पायणोवधाते, एसणोवधाते / उपघात (चारित्र का विराधन) तीन प्रकार का कहा गया है 1. उद्गम-उपघात-आहार की निष्पत्ति से सम्बन्धित भिक्षा-दोष, जो दाता-गृहस्थ के द्वारा किया जाता है। 2. उत्पादन-उपधात–आहार के ग्रहण करने से सम्बन्धित भिक्षा-दोष, जो साधु-द्वारा किया जाता है। ___ 3. एषणा-उपघात-आहार को लेने के समय होने वाला भिक्षा-दोष, जो साधु और गृहस्थ दोनों के द्वारा किया जाता है (432) / ४३३-[तिविधा विसोही पण्णत्ता, तं जहा-उग्गमविसोही, उप्पायणविसोही, एसणाविसोही] / विशोधि तीन प्रकार की कही गई है१. उद्गम-विशोधि-उद्गम-सम्बन्धी भिक्षा-दोषों की निवृत्ति / 2. उत्पादन-विशोधि-उत्पादन-सम्बन्धी भिक्षा-दोषों की निवृत्ति / 3. एषणा-विशोधि—गोचरी-सम्बन्धी दोषों की निवृत्ति (433) / आराधना-सूत्र ४३४---तिविहा पाराहणा पण्णत्ता, तं जहा--णाणाराहणा, दसणाराहणा, चरित्ताराहणा। ४३५---णाणाराहणा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा–उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा / ४३६--[दसणाराहणा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा--- उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा / ४३७---चरित्ताराहणा तिविहा पण्णत्ता, त जहा-उक्कोसा, मज्झिमा, जहष्णा] / पाराधना तीन प्रकार की कही गई है-ज्ञान-पाराधना, दर्शन-आराधना और चारित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org