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________________ तृतीय स्थान-तृतीय उद्देश ] [ 165 अर्थ-योनि-सूत्र ४००–तिविधा प्रत्थजोणी पण्णत्ता, त जहा-सामे, दंडे, भेदे। अर्थ योनि तीन प्रकार कही गई है- सामयोनि, दण्डयोनि और भेदयोनि (400) / विवेचन---राज्यलक्ष्मी प्रादि की प्राप्ति के उपायभूत कारणों को अर्थयोनि कहते हैं / राजनीति में इसके लिए साम, दान, दण्ड और भेद इन चार उपायों का उपयोग किया जाता है। प्रस्तुत सूत्र में दान को छोड़ कर शेष तीन उपायों का उल्लेख किया गया है / यदि प्रतिपक्षी व्यक्ति अपने से अधिक बलवान्, समर्थ या सैन्यशक्ति वाला हो तो उसके साथ सामनीति का प्रयोग करना चाहिए / समभाव के साथ प्रिय वचन बोलकर, अपने पूर्वजों के कुल क्रमागत स्नेह-पूर्ण सम्बन्धों की याद दिला कर, तथा भविष्य में होने वाले मधुर सम्बन्धों की सम्भावनाएं बतलाकर प्रतिपक्षी को अपने अनुकूल करना सामनोति कही जाती है / जब प्रतिपक्षी व्यक्ति सामनीति से अनुकूल न हो, तब दण्डनीति का प्रयोग किया जाता है / दण्ड के तीन भेदों का संस्कृत टीकाकार ने उल्लेख किया है---वध, परिक्लेश और धन-हरण / यदि शत्रु उग्र हो तो उसका वध करना, यदि उससे हीन हो तो उसे विभिन्न उपायों से कष्ट पहचाना और यदि उससे भी कमजोर हो तो उसके धन का अपहरण कर लेना दण्ड-नीति है। टीकाकार द्वारा उद्धृत श्लोक में भेदनीति के तीन भेद कहे गये हैं—स्नेहरागापनयन---स्नेह या अनुराग का दूर करना, संहर्षोत्पादन- स्पर्धा उत्पन्न करना और संतर्जन–तर्जना या भर्त्सना करना / धर्मशास्त्र में राजनीति को गहित ही बताया गया है / प्रस्तुत सूत्र में केवल 'तीन वस्तुओं के संग्रह के अनुरोध से' उनका निर्देश किया गया है। पुद्गल-सूत्र ४०१–तिविहा पोग्गला पण्णत्ता, त जहा–पयोगपरिणता, मोसापरिणता, वीससापरिणता। पुगद्ल तीन प्रकार के कहे गये हैं--प्रयोग-परिणत-जीव के प्रयत्न से परिणमन पाये हुए पुगदल, मिश्र-परिणत—जीव के प्रयोग तथा स्वाभाविक रूप से परिणत पुगद्ल, और विस्रसास्वतः-स्वभाव से परिणत पुगद्ल (401) / नरक-सूत्र ४०२---तिपतिट्ठिया णरगा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविपतिट्ठिया, आगासपतिट्ठिया, प्रायपइट्ठिया। णेगम-संगह-ववहाराणं पुढविपतिट्ठिया, उज्जुसुतस्स प्रागासपतिट्टिया, तिण्हं सद्दणयाणं पायपतिढिया / नरक त्रिप्रतिष्ठित (तीन पर आश्रित) कहे गये हैं--पृथ्वी-प्रतिष्ठित, आकाश-प्रतिष्ठित और आत्म प्रतिष्ठित (402) / 1. नैगम, संग्रह और व्यवहार नय की अपेक्षा से नरक पृथ्वी पर प्रतिष्ठित हैं। 2. ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से वे आकाश-प्रतिष्ठित हैं / 3. शब्द, समभिरूढ तथा एवम्भूत नय की अपेक्षा से आत्म-प्रतिष्ठित हैं, क्योंकि शुद्ध नय की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु अपने स्व-भाव में ही रहती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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