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________________ 154 ] | स्थानाङ्गसूत्र तीन कारणों से महावृष्टि होती है 1. किसी देश या प्रदेश में (क्षेत्र-स्वभाव से) पर्याप्त मात्रा में उदकयोनिक जीवों और पुद्गलों के उदक रूप में उत्पन्न या च्यवन होने से / 2. देव, नाग, यक्ष या भूत सम्यक् प्रकार से प्राराधित होने पर अन्यत्र समुत्थित, वर्षा में परिणत तथा बरसने ही वाले उदक-पुद्गलों का उनके द्वारा उस देश में संहरण होने से / 3. समुत्थित, वर्षा में परिणत तथा बरसने ही वाले बादलों के वायु-द्वारा नष्ट न होने से / इन तीन कारणों से महावृष्टि होती है (360) / अधुनोपपन्न-व-सूत्र ३६१–तिहि ठाणेहि पहुणोववष्णे देवे देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं हवमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएति हव्यमागच्छित्तए, तं जहा 1. प्रणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिन्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्ध गढिते प्रज्झोववणे, से णं . माणुस्सए कामभोगे णो आढाति, णो परियाणाति, णो अटुंबंधति, णो णियाणं पगरेति, णो ठिइपकप्पं पगरेति। 2. प्राणोववष्णे देवे देवलोगेसु दिन्वेसु कामभोंगेसु मुच्छिते गिद्ध गढिते प्रभोववण्णे, तस्स णं माणुस्सए पेम्मे वोच्छिण्णे दिवे संकते भवति / 3. अहणोववणे देवे देवलोगेसु दिन्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते [गिद्ध गढिते] अज्झोववणे, तस्स गं एवं भवति–इण्हि गच्छं मुहत्तं गच्छं, तेणं कालेणमप्पाउया मणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता भवंति। ___ इच्चेतेहि तिहि ठाणेहि प्रहणोववण्णे देवे देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं हन्धमागच्छित्तए, णो चेव गं संचाएति हव्वमागच्छित्तए। देवलोक में तत्काल उत्पन्न देव शीघ्र ही मनुष्यलोक में पाना चाहता है, किन्तु तीन कारणों से पा नहीं सकता 1. देवलोक में तत्काल उत्पन्न देव दिव्य काम-भागों में मूछित, गृद्ध, बद्ध एवं आसक्त होकर मानुषिक काम-भोगों को न आदर देता है, न उन्हें अच्छा जानता है, न उनसे प्रयोजन रखता है, न निदान (उन्हें पाने का संकल्प) करता है और न स्थिति-प्रकल्प (उनके बीच में रहने की इच्छा) करता है। 2. देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्य काम-भागों में मूच्छित, गृद्ध, बद्ध एवं प्रासक्त देव का मानुषिक-प्रेम व्युच्छिन्न हो जाता है, तथा उसमें दिव्य प्रेम संक्रांत हो जाता है / 3. दिव्यलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्य काम-भागों में मूच्छित, (गृद्ध, बद्ध) तथा आसक्तदेव सोचता है-मैं मनुष्य लोक में अभी नहीं थोड़ी देर में, एक मुहूर्त के बाद जाऊंगा, इस प्रकार उसके सोचते रहने के समय में ही अल्प आयु का धारक मनुष्य (जिनके लिए वह जाना चाहता था) कालधर्म से संयुक्त हो जाते हैं (मर जाते हैं)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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