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________________ आवश्यक णि' के अनुसार पाये हये श्रमण-संघाटक ने कोई नया प्रश्न उपस्थित नहीं किया, वह पुनः लौट गया। उसने सारा संवाद संघ को कहा / संघ अत्यधिक विक्षुब्ध हा। क्योंकि भद्रबाहु के अतिरिक्त दृष्टिवाद की वाचना देने में कोई भी समर्थ नहीं था। पून: संघ ने श्रमण-संघाटक को नेपाल भेजा। उन्होंने निवेदन कियाभगवन् ! संघ की आज्ञा की अवज्ञा करने वाले को क्या प्रायश्चित्त प्राता है ? 42 प्रश्न सुनकर भद्रबाहु गम्भीर हो गये। उन्होंने कहा--जो संघ का अपमान करता है, वह श्रतनिह्नव है। संघ से बहिष्कृत करने योग्य है। श्रमण-संघाटक ने पूनः निवेदन किया-आपने भी संघ की बात को अस्वीकृत किया है, आप भी इस दण्ड के योग्य हैं ? "तित्थोगा लिय' में प्रस्तुत प्रसंग पर श्रमण-संघ के द्वारा बारह प्रकार के संभोग विच्छेद का भी वर्णन है। प्राचार्य भाद्रबाह को अपनी भूल का परिज्ञान हो गया। उन्होंने मधर शब्दों में कहा- मैं संघ की आज्ञा का सम्मान करता हूँ। इस समय मैं महाप्राण की ध्यान-साधना में संलग्न हूँ। प्रस्तुत ध्यान साधना से चौदह पूर्व की ज्ञान राशि का मुहूर्त मात्र में परावर्तन कर लेने की क्षमता प्रा जाती है। अभी इसकी सम्पन्नता में कुछ समय अवशेष है / अत: मैं आने में असमर्थ हैं। संघ प्रतिभासम्पन्न श्रमणों को यहाँ प्रषित करे। मैं उन्हें साधना के साथ ही वाचना देने का प्रयास करूंगा। "तित्थोगालिय''४३ के अनुसार भद्रवाह ने कहा-मैं एक अपवाद के साथ वाचना देने को तैय्यार हैं। आत्महितार्थ, वाचना ग्रहणार्थ पाने वाले श्रमण-संघ में बाधा उत्पन्न नहीं करूगा / और वे भी मेरे कार्य में बाधक न बनें! कायोत्सर्ग सम्पन्न कर भिक्षार्थ आते-जाते समय और रात्रि में शयन-काल के पूर्व उन्हें वाचना प्रदान करता रहूँगा / "तथास्तु" कह वन्दन कर वहाँ से वे प्रस्थित हुये। संघ को संवाद सुनाया। संघ ने महान् मेधावी उद्यमी स्थलभद्र आदि को दाष्टिवाद के अध्ययन के लिये प्रेषित किया। परिशिष्ट पर्व४४ के अनुसार पांच सौ शिक्षार्थी नेपाल पहुंचे थे। तित्थोगालिय'४५ के अनुसार श्रमणों की संख्या पंन्द्रह सौ थी। इनमें पांच सौ श्रमण शिक्षार्थी थे और हजार श्रमण परिचर्या करने वाले थे। प्राचार्य भद्रबाह प्रतिदिन उन्हें सात वाचना प्रदान करते थे। एक वाचना भिक्षाचर्या से आते समय, तीन वाचना विकाल वेला में और तीन वाचना प्रतिक्रमण के पश्चात रात्रि में प्रदान करते थे। दष्टिवाद अत्यन्त कठिन था / वाचना प्रदान करने की गति मन्द थी। मेधावी मुनियों का धर्य ध्वस्त हो गया। चार सो निन्यानवे शिक्षार्थी मुनि वाचना-क्रम को छोड़कर चले गये / स्थूलभद्र मुनि निष्ठा से अध्ययन 41. तं ते भणंति दुक्काल निमित्त महापाणं पविट्टोमि तो न जाति वायणं दातु। --आवश्यकचूणि, भाग-२, पत्रांक 187 42. तेहि अण्णोवि संघाडयो विसज्जितो, जो संघस्स प्राणं-अतिक्कमति तस्स को दंडो? तो अक्खाई उग्घाडिज्जई / ते भणति मा उग्घाडेह, पेसेह मेहावी, सत्त पडिपुच्छगाणि देमि / -अावश्यकचूर्णि, भाग-२, पत्रांक 187 43, एक्केण कारणेणं, इच्छंभे वायणं दाउं अपठे पाउत्तो, परमठे सुटु दाइं उज्जुत्तो। न वि अहं वायरियन्वो, अहंपि नवि वायरिस्सामि / / पारियकाउस्सग्गो, भत्तट्ठितो व अहव सेज्जाए। नितो व अइंतो वा एवं भे वायण दाहं / / -तित्थोगाली गाथा-३५, 36 / 44. परिशिष्ट पर्व, सर्ग 9 गाथा-७० 45. तित्थोगाली [20] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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