________________ श्रत को अविरल धारा प्रार्य भद्रबाहु तक चलती रही। वे अन्तिम श्रतकेवली थे। जैन शासन को वीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी के मध्य दुष्काल के भयंकर वात्याचक्र से जूझना पड़ा था। अनुकल-भिक्षा के अभाव में अनेक श्रतसम्पन्न मुनि कालकवलित हो गये थे। दुष्काल समाप्त होने पर विच्छिन्न श्रत को संकलित करने के लिये वीरनिर्वाम 160 (वि. पू. 310) के लगभग श्रमण-संघ पाटलिपुत्र (मगध) में एकत्रित हमा। प्राचार्य स्थलिभद्र इस महासम्मेलन के व्यवस्थापक थे। इस सम्मेलन का सर्वप्रथम उल्लेख "तित्थोगाली' 34 में प्राप्त होता है। उसके बाद के बने हुये अनेक ग्रन्थों में भी इस वाचना का उल्लेख है।३५ मगध जैन श्रमणों की प्रचारभूमि थी, किन्तु द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण श्रमणों को मगध छोड़ कर समुद्र-किनारे जाना पड़ा / 36 श्रमण किस समुद्र तट पर पहुंचे इस का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। कितने ही विज्ञों ने दक्षिणी समुद्र तट पर जाने की कल्पना की है। पर मगध के सन्निकट बंगोपसागर (बंगाल की खाड़ी) भी है। जिस के किनारे उड़ीसा, अवस्थित है। वह स्थान भी हो सकता है। दुष्काल के कारण सन्निकट होने से श्रमण संघ का वहाँ जाना संभव लगता है। पाटलिपत्र में सभी श्रमणों ने मिलकर एक-दूसरे से पूछकर प्रामाणिक रूप से ग्यारह अंगों का पूर्णत: संकलन उस समय किया।३७ पाटलिपुत्र में जितने भी श्रमण एकत्रित हुए थे, उनमें दृष्टिवाद का परिज्ञान किसी श्रमण को नहीं था। दृष्टिवाद जैन आगमों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाग था, जिसका संकलन किये बिना अंगों की वाचना अपूर्ण थी। दृष्टिवाद के एकमात्र ज्ञाता भद्रबाहु थे। आवश्यक-चूणि के अनुसार वे उस समय नेपाल को पडाड़ियों में महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे / 38 संघ ने प्रागम-निधि की सुरक्षा के लिये श्रमणसंघाटक को नेपाल प्रेषित किया / श्रमणों ने भद्रबाह से प्रार्थना की-'पाप वहाँ पधार कर श्रमणों को दृष्टिवाद की ज्ञान-राशि से लाभान्वित करें।' भद्रबाहु ने साधना में विक्षेप समझते हुए प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया / "तित्थोगालिय" के अनुसार भद्रबाहु ने आचार्य होते हुये भी संघ के दायित्व से उदासीन होकर कहा'श्रमणो ! मेरा आयुष्यकाल कम रह गया है ! इतने स्वल्प समय में मैं दृष्टिवाद की वाचना देने में असमर्थ हैं। आत्महितार्थ मैं अपने आपको समर्पित कर चुका है। अतः संघ को वाचना देकर क्या इस निराशाजनक उत्तर से.श्रमण उत्तप्त हुए। उन्होंने पुन: निवेदन किया-'सघ का / उन्होंने पुन: निवेदन किया-'संघ की प्रार्थना को अस्वीकार करने पर पापको क्या प्रायश्चित्त लेना होगा।'४० / 34. तित्थोगाली गाथा-७१४-श्वेताम्बर जैन संघ, जालोर 35. क-अावश्यकचणि भाग---२,.१८७, ख–परिशिष्ट पर्व-सर्ग-९, श्लो. 55-69 / 36. अावश्यकचणि, भाग दो, पत्र 187 / ग्रह बारस वारिसिप्रो, जाप्रो करो कयाइ दक्कालो। सम्वो साहसमूहो, तो गयो कत्थई कोई॥ 22 // तदुवरमे सो पुणरवि, पाडिले पुत्त समागमो विह्यिा / संघेणं सुयविसया चिता कि कस्स 'अस्थिति / / 23 // जं जस्स पासि पासे उद्देसज्झयणगाइ तं सव्वं / संघडियं एक्कारसंगाई तहेव ठवियाई / / 24 // - उपदेशमाला, विशेषवृत्ति पत्रांक 241 38. नेपालवत्तणीए य भद्दबाहुसामी अच्छंति चौदसपुवी। —अावश्यक चूणि भाग-२, पृ. 187 39. सो भणिए एव भाणिए, असिट्ठ किलिट्ठएणं बयणेणं / न हु ता अहं समत्थो, इण्हि मे वायणं दाउं / अप्पढे पाउत्तस्स मज्झ कि वायणाए कायबं / एवं च भणियमेत्ता रोसस्स वसं गया साह / / —तित्थोगाली-गाथा 28, 29 40. भवं भणंतस्स तुहं को दंडो होई तं मुणसु / –तित्थोगाली [19] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org