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________________ तृतीय स्थान-तृतीय उद्देश ] 151 ग्लान (रुग्ण) निर्ग्रन्थ साधु को तीन प्रकार की दत्तियां लेनी कल्पती हैं१. उत्कृष्ट दत्ति--पर्याप्त जल या कलमी चावल की कांजी।। 2. मध्यम दत्ति-अनेक वार किन्तु अपर्याप्त जल और साठी चावल की कांजी। 3. जघन्य दत्ति—एक वार पी सके उतना जल, तृण धान्य की कांजी या उष्ण जल (346) / विवेचन-धारा टूटे विना एक बार में जितना जल आदि मिले, उसे एक दत्ति कहते हैं। जितने जल से सारा दिन निकल जाय, उतना जल लेने को उत्कृष्ट दत्ति कहते हैं। उससे कम लेना मध्यम दत्ति है। तथा एक वार ही प्यास बुझ सके, इतना जल लेना जघन्य दत्ति है। विसंभोग-सूत्र ३५०-तिहि ठाणेहि समणे णिग्गंथे साहम्मियं संभोगियं विसंभोगियं करेमाणे णातिक्कमति, तं जहा-सयं वा दर्छ, सट्टयस्स वा णिसम्म, तच्चं मोसं ग्राउट्टति, चउत्थं णो आउट्टति / तीन कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ अपने सार्मिक, साम्भोगिक साधु को विसम्भोगिक करता हुअा (भगवान् की) आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है-- 1. स्वयं किसी को सामाचारी के प्रतिकुल आचरण करता देखकर / 2. श्राद्ध (विश्वास-पात्र साधु) से सुनकर / 3. तीन बार मृषा (अनाचार) का प्रायश्चित्त देने के बाद चौथी वार प्रायश्चित्त विहित नहीं होने के कारण। विवेचन-जिन साधुओं का परस्पर आहारादि के आदान-प्रदान का व्यवहार होता है, उन्हें साम्भोगिक कहा जाता है / कोई साम्भोगिक साधु यदि साधु-सामाचारी के विरुद्ध आचरण करता है, उसके उस कार्य को संघ का नेता साधु स्वयं देखले, या किसी विश्वस्त साधु से सुनले, तथा उसको उसी अपराध की शुद्धि के लिए तीन वार प्रायश्चित्त भी दिया जा चुका हो, फिर भी यदि वह चौथी वार उसी अपराध को करे तो संघ का नेता प्राचार्य आदि अपनी साम्भोगिक साधु-मण्डली से पृथक् कर सकता है / और ऐसा करते हुए वह भगवद्-प्राज्ञा का उल्लंघन नहीं करता, प्रत्युत पालन ही करता है / पृथक् किये गये साधु को विसम्भोगिक कहते हैं। अनुज्ञादि-सूत्र ३५१-तिविधा अणुण्णा पण्णत्ता, तं जहा-पायरियत्ताए, उवज्झायत्ताए, गणित्ताए। ३५२-तिविधा समणुण्णा पण्णत्ता, तं जहा-पायरियत्ताए, उवज्झायत्ताए, गणित्ताए। ३५३एवं उवसंपया एवं विजहणा [तिविधा उवसंपया पण्णता, तं जहा-पायरियताए, उवज्झायत्ताए, गणित्ताए / ३५४–तिविधा विजहणा पण्णत्ता, तं जहा---गायरियत्ताए, उवज्झायत्ताए, गणिताए / अनुज्ञा तीन प्रकार की कही गई है-प्राचार्यत्व को, उपाध्यायत्व की और गणित्व की (351) / समनुज्ञा तीन प्रकार की कही गई है-आचार्यत्व की, उपाध्यायत्व की और गणित्व की (352) / (उपसम्पदा तीन प्रकार की कहो गई है—प्राचार्यत्व की, उपाध्यायत्व की और गणित्व की (353) / विहान (परित्याग) तीन प्रकार का कहा गया है—आचार्यत्व का, उपाध्यायत्व का और गणित्व का (354) / Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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