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________________ तृतीय स्थान-द्वितीय उद्दश | [ 123 वय (काल-कृत अवस्था-भेद) तीन कहे गये हैं--प्रथमवय, मध्यमवय और पश्चिमवय (173) / तीनों ही वयों में प्रात्मा केवलि-प्रज्ञप्त धर्म-श्रवण का लाभ पाता है-प्रथमवय में, मध्यम वय में और पश्चिमवय में (174) / तीनों ही वयों में प्रात्मा विशुद्ध बोधि को प्राप्त होता हैप्रथमवय में, मध्यमवय में और पश्चिमवय में। इसी प्रकार तीनों ही क्यों में प्रात्मा मुण्डित होकर अगार से विशुद्ध अनगारिता को पाता है, विशुद्ध ब्रह्मचर्यवास में निवास करता है, विशुद्ध संयम के द्वारा संयत होता है, विशुद्ध संवर के द्वारा संवृत होता है, विशुद्ध प्राभिनिबोधिक ज्ञान को प्राप्त करता है, विशुद्ध श्रु तज्ञान को प्राप्त करता है, विशुद्ध अवधिज्ञान को प्राप्त करता है, विशुद्ध मनः पर्यवज्ञान को प्राप्त करता है और विशुद्ध केवलज्ञान को प्राप्त करता है-प्रथमवय में, मध्यमवय में और पश्चिमवय में (175) / विवेचन-संस्कृत टीकाकार ने सोलह वर्ष तक बाल-काल, सत्तर वर्ष तक मध्यमकाल और इससे परे वृद्धकाल का निर्देश एक प्राचीन श्लोक को उद्धृत करके किया है। साधुदीक्षा पाठ वर्ष के पूर्व नहीं होने का विधान है, अतः प्रकृत में प्रथमवय का अर्थ आठ वर्ष से लेकर तीस वर्ष तक का कुमार-काल लेना चाहिए। इकतीस वर्ष से लेकर साठ वर्ष तक के समय को युवावस्था या मध्यमवय और उससे आगे की वृद्धावस्था को पश्चिमवय जानना चाहिए। वस्तुत: वयों का विभाजन आयुष्य की अपेक्षा रखता है और आयुष्य कालसापेक्ष है अतएव सदा-सर्वदा के लिए कोई भी एक प्रकार का विभाजन नहीं हो सकता। बोधि-सूत्र १७६-तिविधा बोधी पण्णता, तं जहा–णाणबोधी, दंसणबोधी, चरित्तबोधी / १७७–तिविहा बुद्धा पण्णत्ता, तं जहा–णाणबुद्धा, दंसणबुद्धा, चरित्तबुद्धा। बोधि तीन प्रकार की कही गई है-ज्ञानबोधि, दर्शनबोधि और चारित्रबोधि (176) / बुद्ध तीन प्रकार के कहे गये हैं—ज्ञानबुद्ध, दर्शनबुद्ध और चारित्रबुद्ध (177) / मोह-सूत्र १७८–एवं मोहे, मूढा [तिविहे मोहे पण्णते, तं जहा–णाणमोहे, दंसणमोहे, चरितमोहे / १७६-तिविहा मूढा पण्णत्ता, तं जहा–णाणमूढा, दंसणमूढा, चरित्तमूढा] / __ मोह तीन प्रकार का कहा गया है-ज्ञानमोह, दर्शनमोह और चारित्रमोह (178) / मूढ तीन प्रकार के कहे गये हैं—ज्ञानमूढ, दर्शनमूढ और चारित्रमूढ (179) / विवेचन-यहां 'मोह' का अर्थ विपर्यास या विपरीतता है। ज्ञान का मोह होने पर ज्ञान अयथार्थ हो जाता है / दर्शन का मोह होने पर वह मिथ्या हो जाता है। इसी प्रकार चारित्र का मोह होने पर सदाचार असदाचार हो जाता है। प्रवज्या-सूत्र १८०-तिविहा पव्वज्जा पण्णता, तं जहा-इहलोगपडिबद्धा, परलोगपडिबद्धा, दुहतो [लोग ? ] पडिबद्धा / १८१-तिविहा पन्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा–पुरतो पडिबद्धा, मग्गतो पडिबद्धा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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